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देवीदास-विलास इस रचना में कवि ने तीर्थंकर के नाम-स्मरण पर अधिक बल दिया है। उसका कथन है कि तीर्थंकर की महिमा इतनी विस्तृत है, कि नाग, सुर, गन्धर्व सभी उसकी विनती करते-करते थक गए, लेकिन कोई भी उसका पार नहीं पा सका। (१/३) जिननामावली
प्रस्तुत लघु रचना में कवि ने ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों का सरस एवं सरल भाषा-शैली में गीतिका-छन्द में गुणानुवाद किया है। इसमें कुल पाँच पद्य हैं।
पहले पद्य में कवि ने पंच-परमेष्ठी को नमस्कार किया है। तत्पश्चात् अगले पद्यों में २४ तीर्थंकरों की महिमा का वर्णन किया गया है। कवि का कथन है कि उनके गुणों का ध्यान करके मानव-जीवन सुख-शान्ति से परिपूर्ण हो जाता है। (१/४) चतुर्विंशति-जिनवन्दना
__प्रस्तुत रचना कवि ने २४ पद्यों में की है। इसमें कवित्त, सवैया, तेईसा, छप्पय एवं कुंडलिया नामक छन्दों में २४ तीर्थंकरों की स्तुति करते हुए बतलाया गया है कि उनके शरीर का वर्ण स्वर्णाभ है एवं उनकी शोभा करोड़ों सूर्यों की प्रभा से भी अधिक है, जिससे कामदेव भी लज्जित हो जाता है। ऐसे ऋषभदेव ने कठोर साधना कर सिद्ध स्वरूप को प्राप्त किया है। ____ तत्पश्चात् कवि ने शेष तीर्थंकरों का गुणानुवाद करते हुए तथा सभी की महानताओं का वर्णन कर यह प्रार्थना की है कि उनके निर्मल गुण उनके भक्तों को भी प्राप्त हों, जिससे वे भी तीर्थंकरों की अवस्था तक पहुँच सकें। (२/१) पंचवरन के कवित्त
कवि ने पाँच रंगों के माध्यम से २४ तीर्थंकरों की आराधना की है। उन्होंने सवैया-इकतीसा नामके छन्द में प्रतीक शैली में पाँच वर्गों का विशद् विश्लेषण किया है। प्रथम पाँच छन्दों में नेमिनाथ-तीर्थंकर की स्तुति और अन्तिम-छन्दों में २३ तीर्थंकरों का उनके वर्गों के अनुसार वर्णन किया गया है। उनके इन वर्णनों में अनुप्रास और यमक की भी सुन्दर योजना की गई है। ऐसा प्रतीत होता है, मानों रंग-बिरंगे पुष्पों की सुरभि से सारा वातावरण ही सुगन्धित हो उठा हो। इतना ही नहीं, कवि ने विविध उत्प्रेक्षाओं द्वारा सुन्दर एवं सरस उद्भावनाएँ भी की हैं, जो अपने आप में अनुपम हैं। कवि ने अपने चर्मचक्षुओं से देखे गए पदार्थों का अनुभव करके उन्हें अपनी कल्पना के रंगों द्वारा इस प्रकार सजाया है मानों बाह्यजगत एवं अन्तर्जगत का सुन्दर समन्वय ही हो गया हो। कवि का यह वर्णन पूर्णरूपेण मनोवैज्ञानिक है। सभी रंग अपने आप में प्रतीकों को व्यक्त कर रहे हैं। मनोवैज्ञानिक
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