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________________ प्रस्तावना है। अध्यात्म-परक शब्दावली के माध्यम से कवि ने आत्मतत्व का पूर्ण ज्ञान प्रदान करने का प्रयत्न किया है। इसमें आत्म-तत्व को परमात्मा, परमब्रह्म, परमानन्द आदि नामों से अभिहित किया गया है। निषेधात्मक शब्दों के द्वारा भी आत्म-सत्ता का बोध सरल रूप में कराया गया है। आत्मा को चेतना-शक्ति मानते हुए उसे निराकार, निर्लोभी, निर्विकार, निम्रन्थ, निर्मल, निर्गद (वाणी-रहित), निर्द्वन्द्व, निर्बाध (बाधारहित), निकाज, निरसंग आदि रूपों में व्यक्त किया गया है। ___ आत्मा सदैव आनन्दमय है। वह अमृत रूपी ज्ञान का पान कराकर निर्वाणपद को प्राप्त कराने वाली है। इस शरीर रूपी घट में ही आत्मा का निवास है। जिस प्रकार पत्थर में सोना छिपा रहता है, दूध और दही में घी सम्पृक्त रहता है तथा तिल के बीच तेल छिपा रहता है और परिश्रम करने पर वह प्रकट हो जाता है, ठीक उसी प्रकार, यह आत्मतत्व भी देह-घट में ही समाहित रहता है। किन्तु निर्मल-ध्यान के द्वारा वह भी प्रकट हो जाता है। यह आत्मा जल एवं कमल पत्र के सदृश ही शरीर से भिन्न रहती है। इसे भेद-विज्ञान के द्वारा ही जाना-समझा जा सकता है। - कवि ने बड़ी विनम्रता के साथ अपने को अल्प-बुद्धि और अल्पगुणी बतलाते हुए इस स्तोत्र की रचना की है। कवि ने आत्म-स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए उदाहरण अलंकारों की जो सुन्दर योजना की है, वह अद्वितीय है। प्रस्तुत रचना में कुल ३१ पद्य हैं। कवि के कथनानुसार उसने किसी संस्कृत-भाषा के परमानन्द-स्तोत्र (श्लोकबद्ध) का यह पद्यानुवाद किया है। उसका लेखक कौन था, इसकी सूचना कवि ने नहीं दी. किन्तु अन्य साक्ष्यों के अनुसार वह अकलंक देव के संस्कृत परमानन्द-स्तोत्र का पद्यानुवाद है। (१/२) जिनस्तुति कवि ने “जिनस्तुति" नामक रचना “हरदौर-राग” में प्रस्तुत की है। इस रचना में जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए कवि ने कहा है कि जिनेन्द्र तीनों लोकों के ईश है, उनके समान दूसरा कोई नहीं है। उनके रोग, शोक, राग-द्वेष आदि सभी दुर्गुण नष्ट हो चुके हैं, वे चौंतीस अतिशयों एवं छयालीस गुणों से युक्त हैं। उनके नाम का स्मरण करने मात्र से ही राजा श्रीपाल समद्र को तैरकर सकुशल वापिस आ गया। मुनि मानतुंग ने भी उनका स्मरण किया, तो वे भी लौह-शृंखलाओं से मुक्त हो गए। मुनि वादिराज ने भी उनका ध्यान किया और वे भी कुष्ट-व्याधि से छुटकारा पा गए। इसमें कुल आठ पद्य हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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