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देवीदास - विलास
इसी प्रकार कवि के “चक्रवर्त्ती- विभूति वर्णन" से प्राचीन भारतीय भूगोल की जानकारी उपलब्ध होती है । खेट, कर्वट (खर्वट) मडंब, उपमहाद्वीप, अंतर्द्वप आदि के उल्लेख पूर्ण रूप से प्राचीन और आधुनिक भूगोल को स्पष्ट करते हैं। इसी कृति में उन्होंने राजा, अधिराजा, माण्डलिक, अर्द्धमाण्डलिक, चक्रवर्त्ती अर्द्धचक्रवर्त्ती आदि की परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की है, जो राजनैतिक जीवन पर प्रकाश डालती है । कवि ने अपनी " पुकार - पच्चीसी” नामकी रचना में " ग्रामपति" शब्द का उल्लेख किया है, जिससे समकालीन पंचायती राज्य-व्यवस्था का आभास मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि के समय में ग्रामों में पंचायती - राज्य व्यवस्था कार्य करती थी।
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(ग) कवि की विनम्रता
कवि देवीदास के साहित्य का अध्ययन करने से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि वे शान्त, सरल, निश्छल एवं निरहंकारी प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। उनकी किसी भी रचना में अहंभाव का दर्शन नहीं होता, बल्कि अपनी किसी-किसी रचना के अन्त में वे अत्यन्त विनम्र शब्दों में अपनी लघुता इस प्रकार व्यक्त करते है -
"मै तो मन्दबुद्धि, अल्पगुणी, साधारण व्यक्ति हूँ। जिनेन्द्र भगवान की समरसवीतरागता और सम्यकत्व आदि का वर्णन करने में गण-फणपति भी स्तम्भित रह जाते हैं, तो फिर मेरी गणना ही क्या ? मेरे पास न तो आगमों के अर्थ की अभिव्यक्ति का कौशल है और न छन्द-बन्ध की मूर्त - कला । उचित शैली के बिना मेरी मति और गति दोनों ही मलिन हो गई हैं। मैं तुच्छ बुद्धि होने के कारण साहित्यप्रणयन में अपने को असमर्थ पाता हूँ। न तो मैंने गुरु के मुख से आगम-ग्रन्थों का श्रवण किया है और न ही उनका मनन । इसलिए मेरी काव्य-रचनाओं में यदि किसी प्रकार की कमी रह जाय या अनर्थ हो जाय तो हे विद्वज्जन, आप अपनी बुद्धिमत्ता से उसमें सुधार कर लीजियेगा । " यथा
“अल्प बुद्धकरि अल्प गुन वरनैं देवियदास । परमानंद, १/१/३१ " देवीदास कहै मति मंद । । जीवचतुर्भेद. २/१२/३३
“यह समकित महिमा कथन गनफनपति थक होत।। दसधा., २/३/३
"
" ग्रन्थ अरथ छवि छंद की मूरति कला न पास।
सैली बिनु मैली भई गति-मति देवियदास ।। " तीन मूढ़., २/१५/३८.
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