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प्रस्तावना
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भट्ट अकलंक के संस्कृत भाषा निबद्ध परमानन्द - स्तोत्र, अचार्य कुन्दकुन्द के शौरसेनी प्राकृत बद्ध प्रवचनसार एवं दंसणपाहुड आदि इसके साक्षात् उदाहरण हैं । उनकी यही रचनाएँ उन्हें लोक-भाषा के सफल अनुवादक की महत्ता भी प्रदान करती हैं। इनके अतिरिक्त भी उनकी सभी रचाएँ वर्ण्य विषय प्रतिपादन की दृष्टि से विशिष्टता रखती हैं एवं उनकी बहुज्ञता को प्रमाणित करती हैं।
इस प्रकार एक ओर वे अपने विषय के विशेषज्ञ और मर्मज्ञ हैं, तो दूसरी ओर भाषा के अधिकारी विद्वान् तथा तीसरी ओर वे मूलानुगामी सफल पद्यानुवादक भी। उन्होंने मारीच के विविध भवान्तर सम्बन्धी रचना में जिस प्रकार से मारीच के जीव की एक-एक पर्याय का पारदर्शी वर्णन मुक्तक- काव्य शैली में किया है, वह हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में अनुपम है । इतना सर्वांगीण वर्णन तो प्रथमानुयोग की सम्भवतः किसी प्रबन्ध-रचना में भी उपलब्ध नहीं होगा। इसी प्रकार " चतुर्विशतिजिन-पूजा" में उन्होंने प्रत्येक तीर्थकर का वर्णन करते समय तीर्थंकर का जीवन किस स्वर्ग लोक से किस तिथि को गर्भावस्था में आया, नगर, मातापिता, जन्म-तिथि, जन्म नक्षत्र, दीक्षाग्रहण की तिथि, नक्षत्र, उनसे सम्बन्धित वन, वृक्ष एवं उनसे दीक्षा धारण करने वाले राजाओं की संख्या, तपके पश्चात् उनकी प्रथम पारणा (आहार) वाले नगर का नाम, राजा-रानी का नाम, केवलज्ञान की उत्पत्ति का समय, उनके गणधर, प्रतिगणधर, मुनि, आर्यिका श्रावक-श्राविकाओं, विक्रियाऋद्धि-युक्त मुनियों, मनः पर्ययज्ञानियों, वादी, प्रतिवादी आदि की संख्या, उनके यक्ष-यक्षिणी का नाम एवं किस महीने और किस ऋतु में उन्होंने मोक्ष को प्राप्त किया, आदि का विस्तृत उल्लेख किया है, जो पौराणिक इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। यह विशेषता अन्य पूजाओं में प्रायः उपलब्ध नहीं होती ।
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"बुद्धिवाउनी” नामक रचना में कवि ने स्व- पर विवेक, आत्मा-परमात्मा का लक्षण, सम्यक्त्व, सुमति - कुमति, पाप-पुण्य, ज्ञान- ज्ञेय एवं भव्य - अभव्य जीवों का रूपक एवं उदाहरण- अलंकार के द्वारा जो सरस, सरल एवं सहज निरूपण किया है, वह पूर्णरूपेण उनकी बहुज्ञता का परिचायक है। उन्होंने अपने राग-रागिनी के एक पद (१७/२) में यह भी बतलाया है कि आगे चलकर दि. जैन मुनि केवल दक्षिण - दिशा में ही होंगे, उत्तर में नहीं ) । इस सदी के प्रारम्भिक काल तक उनकी यह भविष्यवाणी लगभग यथार्थ रही।
“जिनांतराउली” नामक रचना में कवि ने भ. महावीर के पश्चात् चलने वाली आचार्य-परम्परा की जो काल-गणना प्रस्तुत की है वह हिन्दी भाषा में होने के कारण श्रमण-संस्कृति एवं जैन-साहित्य के इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है।
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