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देवीदास-विलास कवि ने एक पंक्ति में निरंजन की स्थिति को कितने सरल रूप में व्यक्त कर दिया है। यथासो सिवरूप अनूप अमूरति सिद्ध समान लखे सुनिरंजन।। बुद्धि, २/१६/१७
५. काव्य-प्रतिभा कवि वही है, जिसके अन्तस् से महान् आचार्यों के उपदेश रूपी अमृत-निर्झर कविता के रूप में स्वतः ही प्रस्फुटित होने लगें। किसी भी भक्त कवि की यह विशेषता होती है, कि वह या तो अपने आराध्य के प्रति पूर्णतया समर्पित होता है और उसका भक्त-रूप गेय-पदों के माध्यम से स्वतः मुखरित होने लगता है अथवा पूर्वाचार्यों की वाणी को वह देश-काल एवं लोक-प्रचलित समकालीन बोली-भाषा में लिखकर या गाकर उसका प्रचार-प्रसार कर युग का प्रतिनिधित्व करता है। कवि-हृदय निरन्तर ही सक्रिय बना रहता है और उसकी वाणी का स्रोत अविराम गति से प्रवहमान रहता है। जिस प्रकार केवड़े के सुगन्धित पुष्पों पर भौंरा बैठे बिना नहीं रह सकता, बसन्त-ऋतु में आम्र-मंजरी को चखकर कोयल कुहु-कुहू किए बिना नहीं रह सकती, उसी प्रकार आचार्यों के उपदेश एवं वाणी भी रुक नहीं सकती। अंग्रेज कवि पी. वी. शैली का भी यही कथन है कि महान् आत्मा के गुणों पर रीझ कर कवि का हृदय फूट पड़ता (Heart outburst) है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणेता कवि देवीदास के कवि रूप पर विचार करने से यह तो स्पष्ट प्रतीत होता है, कि उन्हें किसी भी विद्यालय में नियमित अध्ययन का अवसर नहीं मिला। किन्तु साक्षर होने के बाद कवि को प्रवचन एवं उपदेश सुनने तथा स्वाध्याय में निरन्तर प्रवृत्त रहने से उसे विषय का अच्छा ज्ञान हो गया। भक्त मातापिता द्वारा निर्मित पारिवारिक वातावरण, पूर्व-जन्म का संस्कार, जिज्ञासु-प्रवृत्ति, सामाजिक-धार्मिक परिवेश, नियमित स्वाध्याय और सरस्वती की निरन्तर आराधना से देवीदास का सुसुप्त कवि-हृदय मुखरित हो उठा। आर्ष परम्परा के अनुसार अध्यात्म, आचार एवं सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ उन्हें प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दीभाषा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो गया था। यह उनके उपलब्ध-साहित्य से स्पष्ट है। यही नहीं, उनके द्वारा लिखित प्रवचनसार के पद्यानुवाद से प्रभावित होकर पं. सदासुखजी जैसे महान् दार्शनिक ने एक टीका भी लिखी। इससे कवि देवीदास
के पाण्डित्य एवं कवित्व के असाधारण रूप का परिचय मिलता है। . १. दे. अनेकान्त, वर्ष १९६७ किरण ६/३५०
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