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प्रस्तावना
१९ जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि देवीदास एक श्रद्धालु भक्त कवि थे। भक्त कवि होने के लिए अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा-भक्ति की समर्पित भावना का होना सर्वाधिक सशक्त माध्यम माना जाता है। देवीदास ने भी भक्ति के आलोक में अन्तर्तम की जो अनुभूति प्राप्त की, वही भक्ति के उद्रेक में कविता द्वारा एक अकृत्रिम वन्य-स्रोत की तरह प्रस्फुटित हुई। हार्दिक उमंग के कारण जो नैसर्गिकवैदग्ध्य कवि देवीदास के काव्य में आ सका है, वह सर्वतोभावेन भावापन्न है। उसी में उनकी चमत्कारी प्रतिभा की झांकी दृष्टिगोचर होती है। कवि ने बिना किसी दुरावछिपाव के अपनी अनुभूति को स्वाभाविक भाषा-शैली में ज्यों का त्यों चित्रित कर दिया है। इस प्रकार उनके काव्य में काव्य के सभी गुण और रूप स्वयमेव ही समाहित हो गए हैं।
प्रसिद्ध लक्षणशास्त्रियों ने रस को काव्य की आत्मा माना है। यद्यपि देवीदास के काव्य-ग्रन्थों में नव-रसों की छटा तो दिखाई नहीं देती किन्तु शान्त-रस की छटा सर्वत्र दिखलाई पड़ती है, फिर भी उसी को प्रकाशित करने के लिए अन्य रस सहयोगी के रूप मे उसके चारों ओर अवश्य बिखरे हुए मिलते हैं।
. भाषा को सँवारने वाले समुचित साहित्यिक अवयव-गुण, अलंकार और विविध छन्दों के समाहार के साथ ही साथ.शास्त्रीय राग-रागनियों का मनोहारी योग काव्य के सौन्दर्य को उत्कृष्टता प्रदान करने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं। काव्य के इन सभी उपादानों का संक्षिप्त विश्लेषण काव्य-वैभव नामक अगले प्रकरण में किया जा रहा है। व्यक्तिगत जीवन (क) कवि देवीदास, एक वणिक् के रूप में
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि कवि देवीदास एक सामान्य गृहस्थ थे। आर्थिक दृष्टि से कमजोर रहने तथा एक बड़े परिवार के भरण-पोषण का बोझ उन पर होने के कारण उन्हें आजीविका हेतु व्यापार करना पड़ता था। दिगौड़ा ग्राम में आज भी यही कहा जाता है कि पं. देवीदास बंजी किया करते थे। किन्तु एक सामान्य व्यापारी होने पर भी उनका जीवन सात्विकता और समरसता से परिपूर्ण था। सन्त कबीर की ही भाँति गार्हस्थिक कार्यों से उन्हें जब भी अवकाश मिलता था,
१. जोग., २/२१/१३
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