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________________ प्रस्तावना १७ तत्पश्चात् कवि जब उस सरस रस का पान कर लेता है, तब उसका हृदय अनूभूति के रस से सराबोर होकर अनायास ही कह उठता है 'निज निरमल रसु चाखा जब हम निज निरमल रसु चाखा । करनै की सु कछू अब मौकों और नहीं अभिलाखा ।।” राग., ४/क/४ (ग) तत्वदर्शी - रूप देवीदास ने एक सामान्य गृहस्थ होते हुए भी अपने काव्य में आत्मा, परमात्मा, अष्टकर्म, कषाय, शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र एवं स्व-पर का जो निरूपण किया है, उससे वे एक महान् तत्वदर्शी, दार्शनिक की कोटि में आ जाते हैं। पारिवारिक जीवन में रहते हुए भी उन्होंने उपर्युक्त तत्वों का गहन अध्ययन किया था, साथ ही, उन्होंने अध्यात्म एवं आचार सम्बन्धी सिद्धान्तों को अपने आन्तरिक जीवन में उतारने का प्रयत्न किया था। इसलिए वे स्व-पर, भेद - विज्ञान को बड़ी ही सहजता से कह पाने में समर्थ भी हो सके । एतद्विषयक उनके कुछ उदाहरण देखिए । गूढ़ दार्शनिक - रहस्यों को भी उन्होंने कितनी सीधी साधी सरल भाषा-शैली में स्पष्ट कर उसे सर्वभोग्य बना दिया है। स्व-पर के भेद - विज्ञान का स्पष्टीकरण उन्होंने इस प्रकार किया है— " स्वपर गुन पहिचान रे जिय स्वपर गुन पहिचान | तू सुछंद अनंद मंदिर पद अमूरतिवान ।। चेतन गुन चिन्ह तेरो प्रगट दरसन ज्ञान । जड सपरसादिक सुमूरति पुदगलीक दुकान ।। " पद., ४ /ख / २६ " समकित बिना न तरयौ जिया समकित बिना न तरयो । लाख क्रोर उपास करि नर कष्ट सहत मरयौ । । ” पद., ४/ख / २३ "कीजै कौंनु हवाल अवर हम कीजै कौंनु हवाल ।” पद., ४/ख / २२ आतम-तत्व विचारौ सुधी तुम आतम तत्व विचारौ।।” पद., ४/ख / १० आदि इसी प्रकार आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को भी देखिए कि भेद - विज्ञान द्वारा कवि ने किस प्रकार सरल शब्दों में लौकिक उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया है “पाहन मै जैसे कनक दही दूध मैं घीउ । काठ मांहि जिम अगिनि है ज्यों शरीर में जीउ । । " परमानंद, १/१/२४ " तेल तिली के मध्य है परगट हो न दिखाई । जगत - जगुति में भिन्नता खरी तेलु हो जाय । । ” परमानंद., Jain Education International For Personal & Private Use Only १/१/२५ www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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