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देवीदास-विलास अतः हर्ष-विषाद, सुख-दुख एवं आशा-निराशा की घड़ियों में उनका मन उद्विग्न नहीं होता था।
अपने मन पर उन्होंने ऐसी विजय प्राप्त कर ली थी कि सामाजिक एवं पारिवारिक परिस्थितियाँ उन्हें विचलित नहीं कर पाती थीं। इसका सबसे प्रबल उदाहरण उनके छोटे भाई कमल की मृत्यु है। अपने प्राणों से भी प्रिय इस भाई की मृत्यु पर उन्होंने अपना समभाव नहीं छोड़ा, बल्कि माँ को यह कहकर उन्होंने धैर्य बँधाया कि- “हे माँ, कमों की गति बड़ी विचित्र है। उसे वचनों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह जीव कर्म के अधीन होता हआ भी अहंवश अपने को दूसरों के सुखों-दुखों का कर्ता-धर्ता मानता है, जबकि वस्तुस्थिति इससे भिन्न है। कवि के ही शब्दों में देखिए
“बांकुरी करमगति जाय न कही, माँ बांकुरी करमगति जाय न कही। चिन्तत और बनत कछु औरहि होनहार सों होय सही।।...
देवीदास निरन्तर वस्तु-स्वरूप का ध्यान करते हुए यही विचार करते रहते थे कि जब अन्तर्दृष्टि जागृत हो जायगी, तो समस्त भय स्वतः ही नष्ट हो जायेंगे
और समरसता आ जायगी तथा काललब्धि, गुरु-उपदेश और निर्विकल्पता सुलभ हो जायगी, उससे विषय-कषाय की बेली मुरझा जायगी और मन स्थिर हो जायगा। मोहरूपी अग्नि शान्त हो जायगी, विवेक रूपी वृक्ष हृदय में पल्लवित हो जायगा
और मन पर-परणति से राग नहीं करेगा। तूं सभी प्रकार से अनुभव रूपी रंग में रंगकर रत्नत्रय रूपी मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्त हो जायगा। अतः हे आत्मन्, तूं स्वाधीन बनकर निजानन्द-रस का निरन्तर पान कर। कवि स्वयं कहता है
अंतरदिष्टि जगैगी जब तेरी अंतरदिष्टि जगैगी। होई सरस दिढ़ता दिन हूँ दिन सब भ्रम भीत भगैगी। पद ४/ख/१९
इसी क्रम में कवि पुनः कहता है कि यह आत्म-रस अत्यन्त मधुर है किन्तु स्याद्वाद रूपी रसना के बिना इसका स्वाद नहीं लिया जा सकता। स्वानुभव रूपी यह रस अपूर्व है, आश्चर्यकारी है, वचनानीत एवं अगोचर है। इसको प्राप्त कर लेने पर स्वर्गादिक-सख भी फीके पड़ जाते है। अतः हे आत्मन, तेरा लक्ष्य ही उसे प्राप्त करने का है। यथा
"आतमरस अति मीठौ साधौ भाई आतम रस अति मीठौ।
स्यादवाद रसना बिनु जाकौ मिलत न स्वाद गरीठौ।। पद./ख/२० १. अनेकान्त, पत्रिका (११/७-८) पृ. २७५
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