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________________ १४ देवीदास-विलास "मूरत देख सुख पायो प्रभु तेरी। अतिगम्भीर गुणानुवाद तुम मुख करि जात न गायो। विकलपता सुगई अब मेरी निज गुण रतन भंजायो। जात हतौ कौड़ी के बदलै जब लगु परखि न आयो।—राग-रागिनी ४/क/२० एक अन्य पद में प्रभु के चरणों में अपनी श्रद्धा को दृढ़ बतलाते हुए वे कहते हैं कि मैं भगवान के सुयश को सुनकर उनकी शरण में आ गया हूँ। रागद्वेष जैसे भयंकर तस्करों ने मुझे अपने अधीन कर रखा है और ये अष्टकर्म मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्त नहीं होने देते। यह मेरी ही भूल थी कि आज तक मैं “स्व” को भूल कर “पर” को अपना मानता रहा। लेकिन अब मैंने जिनेन्द्र प्रभु की शरण को ग्रहण कर लिया है। इसलिए मुझे अब पूर्ण विश्वास हो गया है कि मेरे जन्म-मरण का चक्र निश्चित रूप से समाप्त हो जायगा। यथा "सुजस सुनि आयो सरन जिन तेरे। हमरे बैर परै दोई तस्कर रागदोष सुन ठेरे। तुम सम और न दीसत कोई जगवासी बहुतेरे। देवियदास वास-भव-नासन काज भये तुम चेरे।। पद., ४/ख/२० इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी-भक्ति-साहित्य में प्राप्त होने वाली नवधाभक्ति के सोपानों का भी यत्र-तत्र वर्णन किया है। भक्त अपने आराध्य की भक्ति नौ प्रकार से करता है, जिसे नवधा-भक्ति कहते हैं, जो निम्न प्रकार है:- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य-भाव, सख्य-भाव एवं आत्मनिवेदन। यथा "आतम अनभव सार जगतमहि आतम अनभव सार। समरसमय तन-मन सुवचन कृत रहित सकल व्यौपार। श्रवण कथन उपदेश चितवन भजन क्रियादिक आर। देवियदास कहत इह विधि सौ कीजै स्वगुन सम्हार।। पद –४/ख/१४ उन्होंने अन्य भक्तियों के साथ-साथ दास्य भक्ति की भी प्रतिष्ठा की है। वे अपने प्रभु को अपना स्वामी मानकर भक्ति करते हुए कहते हैं, कि इस संसार में शरणागत की लज्जा रखने वाले एक मात्र जिनेन्द्र प्रभु ही हैं। उनके समान गरीबनवाज (दीनदयाल) दूसरा कोई नहीं। यथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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