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________________ प्रस्तावना तो कहीं उनका अध्यात्म-रसिक-रूप आत्म-रस में अठखेलियाँ करता हुआ दृष्टिगोचर होता है। कहीं वे तत्वदृष्टा ज्ञानी के रूप में दिखलाई पड़ते हैं, तो कहीं उनका निश्छल, सच्चरित्र एवं विश्वस्त वणिक् रूप लोगों के जीवन को आकर्षित करता है और कहीं पर उनका कवि-रूप अपनी समग्र काव्यात्मक-विशेषताओं के साथ सम्पूर्ण काव्य में अपनी सुगन्ध बिखेरता सा प्रतीत होता है। एक ओर वे शास्त्रीय-संगीत के मर्मज्ञ के रूप में दिखलाई पड़ते हैं, दो दूसरी ओर भाषा-विज्ञानी तथा शब्द-शास्त्री के रूप में दिखाई पड़ते हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि रीतियुग में भी वह हिन्दीजैन-भक्ति-काव्य का प्रणेता रहा है। वह आपादमस्तक कवि था और भक्ति की उस भाव-भूमि पर पहुँचा हुआ था, जहाँ धर्म और दर्शन का अनायास ही मेल हो जाता है। अपनी काव्य-कृतियों में उसने इन तीनों की जो त्रिवेणी प्रवाहित की है, वह अद्भुत है। उसकी सम्पूर्ण रचनाएँ शान्त-रस की पीयूष पयस्विनी की स्रोत हैं, जिनमें कषाय-निग्रह, भोग-विलास का परित्याग, समानता, समरसता एवं आत्मा का निर्मलीकरण समाहित है। ____ यहाँ संक्षेप में उनकी श्रेष्ठता के कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जा रहा है: (क) एक भक्त कवि के रूप में देवीदास वस्तुतः एक भक्त-कवि हैं। सांसारिक कर्त्तव्य-कार्यों के साथ-साथ वे सर्वज्ञदेव की भक्ति में लीन रहने वाले महान् श्रद्धालु थे। उनकी भक्ति का लक्ष्य संसार के ऐहिक-सुखों एवं अभिलाषाओं को प्राप्त करना नहीं, बल्कि सर्वज्ञ-गुणों के स्मरण एवं दर्शन द्वारा अपनी आत्मा को निर्मल बनाना तथा मन के विकल्पों के तान-वितान को दूर करना है। इसी कारण उनकी भक्ति निष्काम है। कवि को यह दृढ़ विश्वास है कि प्रभु की दिव्य-मूर्ति का दर्शन करने से जन्म-जन्मान्तर के पाप-कर्म तुरन्त समाप्त हो जाते हैं और चित्त परम आह्लाद से ओत-प्रोत हो जाता है। यद्यपि वीतरागी-प्रभु का गुणानुवाद अत्यन्त कठिन एवं वचनातीत हैं, किन्तु उस पर श्रद्धा, मनन और चिन्तन करने से यह जीवात्मा कर्म-जंजाल से मुक्त हो जाता है। कवि ने स्वयं कहा है- “कि जब तक मुझे जिन-गुणों की परख नहीं थी, तब तक मेरा जीवन एक कौड़ी के मोल में जा रहा था अर्थात् निरर्थक रूप में व्यतीत हो रहा था, लेकिन अब जिनेन्द्र के गुण रूपी रत्नों का सेवन करने से मेरे सांसारिक विकल्प दूर हो गए हैं।" यथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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