________________
चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड ३३१ अष्ट प्रकार सु जे मद गाये, ते जग जीवन पास बताये।
जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, ले जलादि पूजों सु विधाता।।१५।। ॐ ह्रीं मददोषरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मोह उदय सब जगत भुलानौं, निज करि चूक परौ सु ठिकानौ।
जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजों सु विधाता।।१६।। ॐ ह्रीं मोहदोषरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जग में अरति उदय जब आवै, सो दुखसों कछू नहीं दिखावे।
जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजों सु विधाता।।१७।। ॐ ह्रीं अरतिदोषरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
व्यापति जब चिन्ता उर मांही, जब प्राणी सुखरूप सु नाहीं।
जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, ले जलादि पूजों सु विधाता।।१८।। . ॐ ह्रीं चिन्तादोषरहित श्रीवृषभादिवीरान्तरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
सवैया-इकतीसा घातिया विनास भये इन्द्रिय-विकारहीन, रहित मृजाद-बोध फैली विभौ जासकी। भये थिर परिणाम आप विर्षे आपहूके, आकुलता सो तौ होत भई है विनाश की। स्वपरप्रकासी सुख-आत्मविलासी, ऐसी परम खुलासी ज्ञान केवलप्रकाश की। अन्त बिन धीरज प्रकाश बलबीरज सु
ऐसे जिनराज कौं प्रणाम देवीदास की।।१९।। ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितश्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
गीतिका विधिपूर्व जो जिनबिम्ब पूजत द्रव्य अरु पुन भावसों। अतिपुण्य की प्रापत सुतिहिकौं होहि दीरघ आयुसों।। जाके सुफल कर पुत्र धनधान्यादि देह निरोगता। चक्रेश-खग-धरणेन्द्र-इन्द्र सु होहि निज सुख भोगता।।२०।।
पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org