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________________ ३३० देवीदास-विलास जन्म धरै सुचतुर्गति मांहीं, बारम्बार तिन्हें सुख नाहीं। जाके श्रीसर्वज्ञ सुधाता, लै जलादि पूजों सु विधाता।।५।। ॐ ह्रीं जन्मदोषरहिताय श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। मरण सदा जनमन प्रति लाग्यौ, गति-गति दुःख दवानल पाग्यौ। जाके श्रीसर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजौं सु विधाता।।६।। ॐ ह्रीं मरणदोषरहिताय श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जब अति जोर करै सु बुढ़ापौ, तन मन बचन शिथिल अति कांपौ। जाके श्रीसर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजौं सु विधाता।।७।। ॐ ह्रीं जरादोषरहिताय श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वापामीति स्वाहा। जब-जब व्याधि सतावत कोई, जासु उदय दीरघ दुःख होई। जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजौं सु विधाता।।८।। ॐ ह्रीं सर्वरोगरहिताय श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। इष्ट वस्तु विनसै दुखदाई, शोक समै उपजत है आई। जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजौं सु. विधाता।।९।। ॐ ह्रीं शोकरहिताय श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वामीति स्वाहा। भय विध सप्त महादुख दैनी, या जग माहि पिछानत जैनी। जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजौं सु विधाता।।१०।। ॐ ह्रीं भयदोषरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। विस्मय दोष सबै दुःख देई, जगत मांहि सु तजै नंहि कोई। जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजौं सु विधाता।।११।। ॐ ह्रीं विस्मयदोषरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति.। निद्रा दोष उदै जिय सोवे, सुरत सम्हार जहाँ सब खोवे। जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजों सु विधाता।।१२।। ॐ ह्रीं निद्रादोषरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। जगतमांहि जेते तनधारी, ब्यापत खेद तिन्हें अतिभारी। जाके श्री सवर्ड सुघाता, ले जलादि पूजों सु विधाता।।१३।। ॐ ह्रीं खेददोषरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। छानौ सब जग को कर लीना, सब श्रम कर संयुक्त पसीना। जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, ले जलादि पूजौं सु विधाता।।१४।। ॐ ह्रीं श्रमदोषरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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