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चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड ३२९ केवल दृग आवरणी चूरे, दर्शन कर अनन्त परिपूरे।
जिनसम देव अवर नहिं दूजा, लै जलादि कीजे भवि पूजा।।२।। ॐ ह्रीं अनन्तदर्शन गुणमण्डित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मोहकरम तीजे जब भंजे, सुक अनन्त के मांहि सुरंगे।
जिनसम देव अवर नहिं दूजा, लै जलादि कीजे भवि पूजा।।३।। ॐ ह्रीं अनन्तसुख गुणमण्डित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अन्तराय अरिकर्म नसायौ, बल बीरज अनन्त जब आयौ।
जिनसम देव अवर नहि दूजा, लै जलादि कीजे भवि पूजा।।।४।। ॐ ह्रीं अनन्तवीर्य गुणमण्डित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अरिल्ल श्री जिनराज चतुष्टय के धनी, तिनिकी महिमा जात सु तौ किहि पर भनी। जथा शक्ति कीनी सुआप मनरंजना,
पढ़त सुनत सुख होय विघन दुख-भंजना।।५।। ॐ ह्रीं अनन्तचतुष्टयगुणमण्डितश्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु पूर्णार्यम्। (२९) अष्टादशदोषरहित-जिनपूजा
चौपही-छन्द पेरत राग सबै जग काजै, इष्ट पदारथ पीर उपजावै।
जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजों सु विधाता।।१।। ॐ ह्रीं रागभावरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वा.।
दोष भाव सब जीवन घेरे, देख अनिष्ट पदारथ पेरे।
जाके श्रीसर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजौं सु विधाता।।२।। ॐ ह्रीं द्वेषभावरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
सब जीवन यह भूखसतावै, हरण हेत भोजन सो चाहै।
जाके श्रीसर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजों सु विधाता।।३।। ॐ ह्रीं क्षुधारोगरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।
या जग मांहि तृषा अतिभारी, पावन नीर होहि सुखभारी।
जाके श्री सर्वज्ञ सुघाता, लै जलादि पूजों सु विधाता।।४।। ॐ ह्रीं तृषारोगरहित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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