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चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड वीर वर पुरुष वरदत्त राजा जहां, जाय गऊ-दूध आहार लीनौं तहां। दिवस छदमस्त छप्पन स तामें रहें, एक अश्विन सुदी दिन सु केवल लहे।।१७।। काल वेरा सु पूर्वाहिनी जिन भनौं, डेढ़ जोजन समोसरण तिनिको बनौ। सहस इक सतक चौ प्रतिसु गणघर कहे, आदि वरदत्त ग्यारह सु ग्यारह कहे।।१८।। सहस च जुत अर्जका व्रत सुनी, लाखश्रावक सु जहँ श्राविका त्रयगनी। सत स पन्द्रह सु वर अवधजुत महाव्रती, सहस यहँ आठ पुनि सिद्ध गति जे जती।।१९।। सहस इक एकसै वैक्रियकरिद्धिके, केवलिया सहस तहँ डेढ़ सुखसिद्धिके मनसुपर्ययधनी सहस इकसौ कर्मी, आठसै वादि करतार तिनिकी जमी।।२०।। जक्ष पारस सु जक्षी है कुष्मानुनी, भक्ति महँ लीन सर्वज्ञ जिन जाननी। सब समोशरण की विभव को कहि सके, अमित महिमा सुकवि मन्दमति कह थकै।।२१।। सुदि सु आषाड़ आठ न पुनरूक्तमें, चढ़ सुगिरनार पहुँचे सु जिन मुक्तिमें। वंश-यादव सु जगमाहि जाहिर भयो, तप फलो सुकृत भव-पूर्वमें वीजयो।।२२।।
सोरठा सुनत महासुख होय तिनि जिनवरकी वात।
इष्ट लगै अति सोय कवित्त छंद भाषा करत।।२३।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्रेभ्यो महाअर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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