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________________ चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड ३१५ ३१५ __ पद्वडि मिथिला नगरी उत्तम सुथान, धर्मज्ञ विजय नामा सुनाम। वप्रा देवी तिनिके रानि, सम्पूरण शुभगुण गण सुखानि।।१३।। उपजे अपराजित तज विमान, निवसैं तिनकी वर कख मान। दोयज दिन शुभ लागत सुक्वार, वरषै तिनके कर रत्न द्वार।।१४।। नवमास महा सुखसों जमाय, वदि दिन दसमी सु अषाड़ आय। जनमें अश्विन सु नक्षत्र माहि, तिनि पास सहज मलमूत्र नांहि।।१५।। दस सहस वरष थिति वीतराग कुँवरावर महि चौथे सुभाग। कर राज सहस वरचे सुपांच, दिन शेषमाहिं तपकी सु बांच।।१६।। वदि दिन अषाड़ दसमी गहीर, तप वासर परम सु.घोर वीर। दीक्षा जुत एक सहस्त्र भूप, द्रुममौलश्री नामा अनूप।।१७।। वर सुगजपुरी नगरी सुसत्त, जहँ प्रगट नाम राजा सुदत्त। बडभागवंत तिनके सु जाय, भोजन तिहिं दूध लियौ सुगाय।।१८।। छदमस्त रहे नवमास सोय, वर ज्ञान भयो मल कर्म धोय। तृतीया सुदि चैत सुदिन सुनीत, अपराहनीक वेरा पुनीति।।१९।। समवादिशरण जोजन सु दोय, गणधर सुप्रभ आदिक सुजोय। दससप्त तिन्हैं नित नमत शीश, प्रति गणधर पूज्य हजार वीस।।२०।। घट पंच-सहस गण लाख अर्द्ध मार्गिनी अर्जिका तसु सुपर्ध। श्रावक इन श्रावकनी सुतीन, गणतीसुलाख जानौं प्रवीण।।२१।। सत-षोड़स अवधिधनी मुनीश, तिन तुल्य सुकेवल त्रिजगदीश। नरसहस अवर षट सब गुनज्ञ, गतिसिद्व जती निज धरम लज्ञ।।२२।। वैक्रियकरिद्धिवारे सुजेठ, तिनकी गिनती सु हजार डेढ़। मनपर्यय चौथौ ज्ञान धार, तिनकी गिनती सु सवा हजार।।२३।। वरने इक सहस सु वादवन्त, गोमेदक नाम सु जच्छ सन्त। जच्छिन बहुरूपिन देवी होय इक्ष्वाकु वंश रक्षौ सो मोय।।२४।। सोरठा चौदस वद्धि वैसाख मुक्ति शिखर सम्मेद चढ़। पहुँचे निरअभिलाख देवीदास कहै सु कवि।।२५।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय महायं निर्वपामीति स्वाहा। (जाप्य १०८ वार ॐ श्रीनमिनाथाय नमः). Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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