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देवीदास-विलास तो उनके काव्य में स्वाभाविक और उदात्त रूप से वर्णित हुए ही हैं, किन्तु लोकहित को ध्यान में रखकर उन्होंने सवृत्तियों के प्रेरक आवश्यक पक्षों का निरूपण विशेष रूप से किया है।
संसार के दुःखों का मूल कारण राग और द्वेष है। ये दोनों मनोविकार ही अनेक विकारी-भावों को जन्म देते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, तृष्णा एवं ईर्ष्या आदि को जागृत करने वाले राग और द्वेष ही है। यहीं दोनों मानव को अनादिकाल तक भव-संसार का भ्रमण कराते रहते हैं और अष्ट-कर्म रूपी राक्षस उसे कन्दुक के समान यहाँ से वहाँ उछालते रहते हैं। उक्त भावों के कारण ही मनुष्य में विवेक नहीं रह जाता और इसी कारण वह आत्मा के अस्तित्व में भी पूर्ण विश्वास नहीं कर पाता। कवि देवीदास ने उक्त विचारों की अभिव्यक्ति तथा आत्म-तत्व की प्रतिष्ठा के लिए देवीदास-विलास की रचना की, जिसमें उन्होंने विभिन्न काव्य-रूपों के द्वारा आत्म-तत्व का परिचय दिया और मानव को स्वानुभव के द्वारा उसे प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। (ख) कवि-काल-निर्णय
भारतीय स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पूर्व बुन्देलखण्ड की ओरछा स्टेट की राजधानी टीकमगढ़ (वर्तमान में मध्यप्रदेश का एक सामान्य जिला) के दिगौड़ा नामके ग्राम में कविवर देवीदास का जन्म हुआ था। उनका विस्तृत जीवन-परिचय तो अनुपलब्ध है किन्तु बाह्य एवं अन्तक्ष्यिों के आधार पर मधुकरी-वृत्ति से कुछ परिचय अवश्य मिल जाता है। उन्होंने अपनी कृतियों के अन्तिम प्रशस्ति पद्यों एवं पष्पिकाओं में अपनी जन्मभूमि एवं कर्मभूमि पर जो क्षीण प्रकाश डाला है, उसी से उनके ग्राम, माता-पिता, भाई-बहिन, जाति-वंश एवं समकालीन राजा के सम्बन्ध में कुछ जानकारी उपलब्ध हो जाती है। किसी-किसी रचना में उसके समापन-काल एवं स्थान का भी उल्लेख मिलता है, जिससे उसके रचना-स्थल, रचनाक्रम एवं समय-निर्धारण में भी सहायता मिल जाती है। अपनी “वर्तमान-चौबीसी-पाठ" नामक रचना के अन्त में उसने ग्रन्थकार-प्रशस्ति अंकित की है, जो निम्न प्रकार है
संवतु अष्टादस परै एक बीस को बास, सावन सुदी परिभात रवि धरां उगी दिन जास। धरां उगी दिन जास गाम को नाम दिगौड़ा, जैनी-जन बस-बास औड़छै सौ पुर ठौड़ा।
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