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प्रस्तावना
(४) अशुद्ध मात्राओं एवं पदों को मिटाने के लिए कभी काली एवं कभी लाल स्याही का प्रयोग किया गया है तथा भूल से लिखे गए अनपेक्षित शब्दों के सिरे पर छोटी-छोटी खड़ी ३-४ रेखाएँ खींच दी गई हैं।
(५) पत्र ११४ से लेकर पत्र १२० अ तक चित्रबन्धकाव्य सम्बन्धी विभिन्न चित्र दिये गए हैं और उन चित्रों में ग्रन्थागत कुछ छन्दों का नियोजन किया गया है । कुल मिलाकर उन चित्रों की संख्या २४ है । जैन हिन्दी साहित्य में यह प्रयोग सम्भवतः सर्वप्रथम किया गया है।
(६) भ - व्यंजन की आकृति अपभ्रंश - युग की शैली से समानता रखती है। (७) हुँ— की आकृति भी अपभ्रंश-युग का स्मरण दिलाती है।
(८) पृ. ७९ और ८० के बीच कुछ पत्रों को काटकर उन्हें फूल पत्तियों का आकार दिया गया है। प्रतीत होता है कि ऐसा करके ग्रन्थ की शोभा बढ़ाने का प्रयास किया गया है।
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(ङ) प्रतिलिपि सम्बन्धी कुछ त्रुटियाँ
(१) पत्र संख्या १७ अ, २६ अ एवं ४४ अ खाली है।
(२) पत्र संख्या ६६ एवं ९४ पर क्रमशः ६५ और ९३ ही लिखा गया है, जिससे पत्रों की क्रम संख्या में अन्तर आ गया है।
(३) पत्र संख्या ४३ पर नम्बर नहीं है एवं ४५ पर ४३ लिखा गया है, जिस कारण आगे की क्रम संख्या में भी परिवर्तन आ गया है।
२. ग्रन्थकार : व्यक्तित्व
(क) कवि परिचय
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, कवि देवीदास रीतिकालीन भक्त कवि हैं। गृहस्थ होते हुए भी एक ओर जहाँ वे भक्ति - रस की अजस्त्र - धारा में डुबकियाँ लगाते रहते थे, वहीं दूसरी ओर, अध्यात्म, चिन्तन एवं मनन में भी लीन रहते थे। आत्मचिन्तन की ओर इनका विशिष्ट ध्यान था । इनकी अनुभूति का धरातल अत्यन्त गहन और विस्तृत था । उन्होंने काव्य के सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम् इन तीनों अवयवों में से शिवम् पर अधिक बल दिया है । किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि कवि ने सत्यम् एवं सुन्दरम् की उपेक्षा की है। बल्कि सत्यम् और सुन्दरम्
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