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चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड ३०९
पद्धडी मिथला नगरी समस्वर्ग लोक, जहँ कुम्भ नाम भूपति मनोग। रानी तसु नाम प्रभावतीस, तिन देव सुगुरू नावत सुशीश।।१३।। अपराजित छोड़ विमान वास, परमा सुदि चैत सुगर्भ जास। नवमास जहँ सु गनौ प्रवीन, मगसिर सुदि ग्यारस जन्म लीन।।१४।। अश्विनी-नक्षत्र सुखको सुकेत, घर-घर वर तिलक तमोर देत। आयु सु वरष पचपन हजार, पूरन करि पुनि बहुविधि प्रकार।।१५।। पौने सुचतुर्दश सहसवर्ष, कुँवरावर अति कीनी सुसर्स। जगजाल सकल जानों अनित्त तनि राजविर्षे दीनों न चित्त।।१६।। इकतालीस सहस सहस्त्र पाउ, तपकाल कहास जहँ निज उछाउ। मारगसुदि ग्यारस तप तपंत, दीक्षा तरूतर सु अशोक गंत।।१७।। सततीन सुधी नरनाथ संग, लीनौं सुमहाव्रत अति अभंग। अति सुन्दर मिथलापुर सुनग्र, नृप नंदसेन जुत गुण समग्र।।१८।। पहुँचे जिन तसुग्रह की सु सूध, दीनों तिन असन गऊ-सुदूध। छहदिन ही रहे छदमस्त धीर, पुनि केवलज्ञान भयो गहीर।।१९।। फागुनवदि वारसके सु जोग, अपराहिनीक बेरा नियोग। समवादिसरन जोजन सु तीन, गणधार अठाइस सुगुण लीन।।२०।। वरने सु विशाखा नाम आदि, मुनिवरगण गुण मंडित तपादि। परमित सुसहस चालीस सोय, हमसें सो सब वरणन न होय।।२१।। मुनिवर तद्भव भवतरन हार, दौसै घट जे उनतिस हजार। पचपन सहस्त्र अजिया समूह, तिनके जसकी जगमें सु कूह।।२२।। इकलाख श्रावक तहँ सु भूरि, तिगुनी तहँ श्रावकनी सु भूरि। जुगसहस उभय सत अवधिवंत, मनपर्यय सहित कहो महंत।।२३।। जे मुनि हजार पोंने सुदोय, तिनिके सुपरिग्रह पुनि न कोय। गन सहस-तीन सय एकघाट वैक्रियिकरिद्विवारे निराठ।।२४।। केवली सहस जुग-जुग सतीस, तिनिकों सु जगतपति नमत शीश। वादी चौदासत सहित वाद, जय करत सुजक्ष सु वरुण वाद।।२५।। विजिया नामा देवी सुपास, जिनभक्ति करत उर धरि हुलास। जगमाहिं परम आनन्द भौन, समवादिसरन वर. सु कौन।।२६।।
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