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देवीदास-विलास
अवधज्ञानी सहस-तीन वरनैं तब। तहस छै-रिद्वि वैक्रयकधारी सब।।२०।। सहस जहँ चार मुनि मनसुपर्यय कहे। सम सु तिनि केवली कर्म काटन कहे।। चारसै मनि उभय सहस वादी गनी।। अस सु य: जहँ मानसी यक्षणी।।२१।। वंस इक्ष्वाक महँ जिन सु दुःख हरनकी। कह सकै को सु महिमा समवसरनकी।। शिखरसम्मेद चढ़ शुद्ध आतम भये। जैठ वदि चतुर्दशमी सु मुक्ती गये।।२२।।
सोरठा - पाप पुण्य परिणाम टारि सहज गुण परिणमैं।
पूरन भयो सुकाम जारौं फेर न आवनैं।।२३।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
गीतिका विधिपूर्व जो जिनबिम्ब पूजत द्रव्य अरु पुनि भावसौं। अति पुण्य की तिनिके सुप्रापत होय दीरघ आवसौं।। जाके सुफल करि पुत्र धन-धान्यादि देह निरोगता। चक्रीसु-खग-धरनेन्द्र-इन्द्र सु होय निज सुख भोगता।।२४।।
इत्याशीर्वाद (जाप्य १०८ बार - ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथाय नमः) (१८) श्री कुन्थनाथ-जिनपूजा (१७)
दोहा कनक वरण लक्षण सु अज तन सु धनुष पैंतीस।
कुन्थनाथ प्रतिमा सुलख पूजौं करि धरि शीश।।१।। ॐ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिन अत्र अवतर अवतर संवौषट् इत्याह्वाननम्। ॐ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिन अत्र तिष्ट तिष्ठ ठ, ठ, : स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिन अत्र मम सनिहितो भव भव वषट् सनिधीकरणम्।
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