________________
२९७
चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड (१७) श्री शान्तिनाथ-जिनपूजा (१६)
दोहा मृगलक्षण हाटकवरण धनुष सु तन चालीस। शान्तिनाथ प्रतिमा सु लखि पूजों करि धरि शीश।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिन, अत्र अवतर २ संवोष्ट इत्याह्वाननम्। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिन, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ : ठ : स्थापन। ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिन, अत्र मम सन्निहितो भव २ वषट् सनिधिकरणं
अष्टक (ढाल तत्व रायसेकी) ज्ञानावरणी कर्म हमरौ केवलज्ञान छिपायौ। दूर होय आवरण हमारौ हाथ जोर जल ल्यायौ। सुकारण पूजत हौं श्री शान्तिनाथ जू के पाय सुकारण पूजत हौ
भवतारण तरण सहाय सुकारण पूजत हौं।।२।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
दूजौ कर्म दर्सनावरणी तिस दर्सन गुण खायौ। निर आवरण भयो चाहत हौं चन्दन घसकर लायौ।।
सुकारण पूजत हौं। श्रीशान्तिनाथ.।।३।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा।
तीजौ कर्म वेदनी मेरौ निरावाध गुन रोके। थालमांहिं निरवेरो सु धारे उज्ज्वल तन्दुल धोके।
सुकारण पूजत हौं।। श्रीशान्तिनाथ. ।।४।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा।
चौथौ कर्म मोहनी घाते गुन सम्यक्त्व हमारौ। जाको नाश होय धरि ल्यायौ बहुविध फूल सम्हारौ।।
सुकारण पूजत हौं। श्रीशान्तिनाथ. ।।५।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेद्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
आयु कर्म पंचमों आयौ तहँ अवगाहन गुन नाहीं।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org