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देवीदास-विलास
पूस सुदि पूर्णमा काल अपराहिणी पांच योजन समोशरण शोभा बनी।। सेन आदिक गणधार त्रिचालिस लहे। सहसचौसट सुमहाव्रत सुमुनवर कहे।।१८।। सहस-वासट जु सत-चार पुनि अर्जका। दु-लख श्रावक तथा श्राविका चतु-लखा।। सहस-उनचास सब चार मुनि महाव्रती। सिद्ध गति जान हारे सुवर जे जती।।१९।। श्रमण छत्तीस सै अवधज्ञानी मुनी। सातहज्जार वैक्रयक-रिद्वि गुनी।। चार साढ़े सहस मनसुपर्यय थली। तुल्य तिनही सुजिन जान जिन केवली।।२०।। आठ-सत-सहस पुनि उभय वादी घनै। जक्ष किन्नर सु जक्षन सुरक्षित तनैं। छवि समोशरणकी वर किमि कीजिये। वंसवर कुक्ष महा जिन सुचिर जीजिये।।२१।।
सोरठा शिखर सम्मेद सुशीश चढ़ सुमुक्ति-कामिनि वरी।
भये शुद्ध जगदीश जेठ वदी चौदस दिना।।२२।। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनचरणाग्रे महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
गीतिका विधि पूर्व जो जिनविम्ब पूजत द्रव्य अरु पुनि भावसौं। अति पुण्यकी तिनिके सु प्रापत होय दीरघ आयुसौं।। जाके सुफल कर पुत्र धन-धन्यादि देह निरोगता। चक्रीसु-खग-धरनेन्द्र-इन्द्र सो होय निज सुख भोगता।।२३।।
इत्याशीर्वाद। (जाप्य १०८ बार ॐ- श्रीधर्मनाथजिनाय नमः)
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