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चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड
गीतिका हम निरख जिन प्रतिबिम्ब पूजत त्रिविध करि गुन थापना। तिनके न कारण काज निज कल्याण हेत सु आपना। जैसे किसान करै स खेती नाँहि नरपति कारनैं। अपनौं सु निज परिवार पालन के जु कारज सारनैं।।११।।
पूर्णा
जयमाल
दोहा धर्मनाथ लखि धर्म धन पंच महाव्रत पाल। मति माफिक तिनकी कहों भाषा करि जयमाल।।१२।।
तोमर छंद स्वर्ग उनहार वररत्न नामापुरी, भानु राजा जहाँ तीनगुण चातुरी सुब्रतानाम देवी सुरानी कही। कूख अवतारनिकी सु लीनौ सही।।१३।। सिद्ध सर्वार्थतज सुख सहित दुःख बिना। सुदि सु वैसाख तेरह महा शुभ दिना।। पुन सुकल माघ तेरस सु जनमन लियौ। पुष्य वर नखत सुख तखत पर बैठियो।।१४।। आखल वरष दस लाख आगम धरी। लाख वर अढ़ाई सु कुँवरावरी।। लाख वरौं गई पाँच शुभ राजमें। आयु गण भाग चौथौं सुतप काजमें।।१५।। भाद्र सुदि त्रयोदसी दिन सु दीक्षा धरी। वृक्ष दधिपर्ण तर जिन तपस्या करी।। सहस राजा सहित छोड़ परिग्रह सवै। पंचमुष्ठि सु कर केश मुंचे तवै।।१६।। पाटलीपुत्रमें धर्मसेनहिं बली। पुण्य परताप तसु सुकृत वली फली।। तासु ग्रह असन लीनों सुपय-गायको। वरष छदमस्त इक ज्ञान युत क्षायकौ।।१७।।
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