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________________ २९२ देवीदास-विलास वदि सु कातिक महादिन परमा परयो, दुःख न सपने सु नवमास पूरन करयो। जैठवदि द्वादशी सरस जन्मा लयो, रेवती नक्षत्र में सुख नखत कवि वरनयो।।१४।। आखल वरस गनि लाख पुनि तीस की, भाग चौथे कुँवरकाल महि शीस की। राज तिहि-लाख-पन्द्रह सु वरसन करे, जेठ वदी दिन सु बारस महा तप करे।।१५।। लाख साढ़े सु पुनि सात बरसैं भवै, काल तप का सुजानो महाजन सवै। वृक्ष पीपल तरै सहित नृप सहस ही, हेत निजकाज जिनराज दीक्षा लही।।१६।। शुभ अयोध्या नगर नृप विशाखन प्रापु, पारनो जहाँ सु गऊँ-क्षीर लीनो प्रभु। वर्ष जह गन सु छदमस्त वरने दुधा, ज्ञान दृग हौंन वर अर्ध चैत सु बुधा।।१७।। पांच साढ़े समोशरन जोजन बने, आदि गणधर आरिष्टादि अध सौ गने। सहस छयासठ कथत प्रति सो गणधर कथा, सहस वसु लाख इक अर्जिका जहं यथा।।१८।। लक्ष श्रावक दुगुन अति स छवि छाजहीं, श्राविका तासु दुगनी जहाँ राजहीं। तीन-सै-सहस-चउ अवधयुत महाव्रती, सहस-वसु वैक्रियकऋद्धि वारे यती।।१९।। मुनि सु जानौ वर मनसुपरजय धरी, लेखिये सहस गन पाच संख्या करी। केवली सहस तहाँ पाच-सै पाइये, वाद करता सु वत्तीस-सै गाइये।।२०।। जक्ष किन्नर सु वैरोटि देवी गिनी, समोशरन सु पढ़त गुनत उत्तम गती, चैत वदी दिन अमावस सु उत्साहके, चढ़ सु सम्मेद हर दुःख करम दाहके।।२१।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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