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________________ चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा - साहित्य - खण्ड सोरठा यह संसार अनंत भ्रमत सुपार न पाइये कानपुनित अन्त जिन अनन्त पूजो सु भवि । । २२ ।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनचरणाग्रे जयमालार्धं निर्वपामीति स्वाहा । गीतिका विधिपूर्व जो जिनबिंब पूजत द्रव्य अरु पुन भावसौं । अतिपुण्यकी तिनके सु प्रापत होय दीरघ आयुसौ जाके सुफल कर पुत्र धन-धान्यादि देह निरोगता । चक्रेश-खग-धरणेन्द्र-इन्द्र सु होहि निज सुख भोगता ।। २३ ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि । (१६) श्री धर्मनाथ - जिनपूजा (१५) दोहा लक्षण वज्र कनक वरण धनुष सु पैतालीस । धर्मनाथप्रतिमा सुकृत पूजत नर सुर ईश । । १ । । ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिन अत्र अवतर अवतर संवोषट् ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिन अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिन अत्र मम सन्निहितो सन्निधीकरणं अष्टक ढाल गुरुभक्ति प्रासुक जल अति सीयरौ निरमल सु विशाल | लै त्रयधारा दे यही कर धरि जुग माल । धर्मनाथ धरमज्ञ हो । देवनके देव सरधाकर तिनकी कहौ, सुखकारण सेव धर्मनाथ धरमज्ञ हो । । २ । । ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनचरणाग्रेषु जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा । चंदन केशरि आदि लै करपूर सुवास जल सौ गारि सु धारि दै चरणाम्बुज पास। धर्मनाथ धरमज्ञ हो । देवन. । ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनचरणग्रे संसारतापविनाशनाय चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा । Jain Education International २९३ .।।३।। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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