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चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड २९१ जे तरन तारन . . . . . . . . .।।७।। ॐ ह्रीं श्रीश्रनन्तजिनचरणाग्रे मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
घर ज्वलन मध्य सु धूप परम अनूप उत्तम वास की, उत्तम सु देवा हेत सेवा निरख प्रतिमा जासकी।
जे तरन तारन . . . . . . . . . .।।८।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तजिनचरणाग्रे अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
ले परम इष्ट सुमिष्ट अति उत्कृष्ट दृष्टि सुहावनें। सज लै सुथार सुढार तिन भगवन्त करन सुहावनें।
जे तरन तारन. . . . . . . . . . . .।।९।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनचरणाग्रे मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
जल गन्ध अक्षत फूल नैवेद्य दीप धूप सुफल भये। वसु भाति अर्घ संजोय कर हम जासु प्रति अरचन चले।
जे तरन तारन . . . . . . . . .।।१०।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनचरणाग्रे अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
गीतिका हम निरख जिन प्रतिबिम्ब पूजत त्रिविध कर गुण थापना तिनके न कारज काज निज कल्याण हेत सु आपना।। जैसे किसान करै जु खेती नाँहि नरपति कारनैं।
अपनौ सु निज परिवार पालन को सु कारज सारनैं।।११।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनचरणग्रे पूर्णय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। जयमाल
दोहा जिन अनन्त गुण ध्यावही सुरपति मुनि भूपाल। मति माफिक तिनकी कहौ भाषा कर जयमाल।।१२।।
ढाल
छोड़ करके विमानो सुपुष्पोत्तरो, वंश इक्ष्वाकु नृपसिंह सेनाहि धरें। नाम सुर जासुदेवी सुरानी भनी, आनि उपजै सु कर कूख त्रिभुवन धनी।।१३।।
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