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देवीदास-विलास (१५) श्री अनन्तनाथ-जिनपूजा (१४)
सेई लक्षिन सोबरन बरन सु धनुष पचास।
पूजत पुण्य सु ऊपजै जिन अनन्त प्रति जास।।१।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनचरणाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि।
अष्टक गीतिका अति सरस झारी दिपत भारी उभय कर धर ल्यायकैं, शिवकंत सन्मुख सलिल धारा दै सु मन-बच-काय कैं। जे तरन-तारन त्रिजगपति ईश्वर सुनर सुरशेष के,
सिर नायके क्रम-कमल पूजों श्री अनन्त जिनेश के।।२।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तजिनचरणाग्रे जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
धर सोभनीक सुरंग कुंकुम मध्य उत्तम थार के, घिस परम चन्दन हेत वन्दन दुःख निकन्दनहार के।।
जे तरन तारन. . . . . . . . ।।३।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तजिनचरणाग्रे संसारतापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल सु अक्षत लै सुगंधित जास परगट देहुरे, सुरझावने के हेत हम बाधे चतुर्गति देहुरे।
जे तरन तारन . . . . . . . . ।।४।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तजिनचरणाग्रे अक्षयपदप्राप्तयेअक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा।
ले पहुप रितु के षट सु ऋतु के अमल नीर पखार के, निज शक्ति माफिक आप जिनके तासु उर अवधार के।
जे तरन तारन . . . . . . . . .।।५।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तजिनचरणाग्रे कामवाणविध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
नैवेद्य परम उमेद सो रचि सकल दोष सु हानि कैं, धरिये सु तन जिनराज के प्रतिबिम्ब अग्र सुआनि कै।
जे तरन तारन . . . . . . . . . ।।६।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तजिनचरणाग्रे क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक अडोल अमोल, रत्न जड़े महा सोवरन के, सेवक सु ल्यायो शरन आयो निकट भव दुःख हरन के।
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