________________
२८१
चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड भविजन चलौ पूजत हेत।
ग्यारवें श्रेयांस जिनवर सेवकनि सुखदेत।। भविजन. ।।८।। ॐ ह्रीं श्रींश्रेयांसजिनचरणाग्रे अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
अमलवेत सु इमरता सु अनार आम सु मिष्ट। फल सु आदि उतारिये इन जगत मांहि उत्कृष्ट।। भविजन चलौ पूजन हेत।
ग्यारवें श्रेयांश जिनवर सेवकनि सुखदेत।। भविजन.।।९।। ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसजिनचरणाग्रे मोक्षफलप्राप्ताय फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
लै सुनीर सुगन्ध अक्षत पहुप अरू नैवेद्य। दीप धूप प्रधान-फल फल, अष्टकर्म उच्छेद।। भविजन चलौ पूजन हेत।
ग्यारवे श्रेयांश जिनवर सेवकनि सुखदेत।। भविजन. ।।१०।। ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसजिनचरणाग्रे अर्ध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
गीतिका हम निरख जिन प्रतिबिम्ब पूजत त्रिविध कर गुण थापना। तिनके न कारज काज निज कल्याण हेत सु आपना। जैसे किसान करें जु खेती नाँहि नरपति कारनै।
आपनौ सु निज परिवार पालन को सु कारज सारनै।।११।। ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसजिनचरणाग्रे पूर्णाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
(जाप्य १०८ बार-श्रीश्रेयांसजिनाय नमः) जयमाल
दोहा मण्डित शुद्धातम सुश्रिय, जिन श्रेयांस चिरकाल। मति माफिक तिनकी कहौं, भाषा कर जयमाल।।१२।।
त्रोटक वर सिंहपुरी नगरी सु जहाँ नरनायक विष्णवनाथ जहाँ। तिनके घर वेणु तिया विमला, छबि की को बरने जान कला।।१३।। पुष्पोत्तरतें तिन गमन करे, तिनकी निज कूख विष उतरे। छटि जेठ बदी सुजुदी दुखसों, नवमास महां भुगते सुखसों।।१४।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org