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________________ २७० देवीदास-विलास पुनि छदमस्त वरष नव वीतौ, मन संजुक्त करत अरि जीतौ। फागुन सप्तमि पक्ष अंधेरा, केवल दिन अपराहिन वेरा।।१९।। समवशरण जोजन नव लीजे, सौ गणधर घट पंच गनीजे। बलदत्त आदि कहे गुनवन्ता, तीन लाख प्रतिगणधर संता।।२०।। तीन सहस्त्र-लाख-गन तीनी, त्रिय सु अर्जिका व्रत लीनी। सीन लाख श्रावक तहां गिनती, पाँच लाख श्रावगनीवन्ती।।२१।। अवधिवन्त नव सहस सुसारे, पनि वनरौ मनपर्यय वारे। नव सहस्त्र शत डेढ़ सु जानी, ग्यारा सहस सु केवलज्ञानी।।२२।। बादकरन हारे परवादी, आठ-सहस-छै सौ सब वादी। विजय जक्षं नामा सुन जेवी, जच्छी पुरुषदत्ता जिनदेवी।।२३।। फागुन छटि अँधियारे पाखे, चढ़ सम्मेदशिखर अंरि घाते। महिमा समवसरण अरु ताकी, कहबे को समरथ मति काकी।।२४।। सोरठ खेंच लेत धर हाथ, बूड़त जे भव उदधि में। भजौं सुपारसनाथ, भये वंश इक्ष्वाकु में।।२५।। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनचरणाये जयमालार्घ्य निर्वापामीति स्वाहा। (९) श्री चन्द्रप्रभु-जिनपूजा (८) दोहा शुक्ल वरन तन डेढ़ धनुष उचित अति तास। शशि लक्षण लखि पूजिये, चन्द्रप्रभु प्रति जास।।१।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनचरणाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि।। अष्टक (सारंग में) ब्यापत अति विकराल महादुख मोहि तृषा को, भटक्यौ मृग परताप पाय लखि नीर मृषा कौ। दूर करन के हेत अब आयो जल भर जाय पूजौं मनवचकाय के श्री चन्द्रप्रभु जू के सुखकारन सुधरे।।२।। हने तिन चार घातियाकर्म, लह्यो सुअनन्त चतुष्टय सर्म्म भवसागर सुधरे ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभुजिनचरणाग्रे जन्ममृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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