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________________ चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा - साहित्य-खण्ड मोह महा परचण्ड उदै उर अन्तर डाह्या विषयन के रसरंग चतुर्गति में दुख पायौ । याहि बुझावत हेत यो धरि चन्दन नाय । पूजौं । । ३ ।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभुजिनचरणाग्रे संसारतापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा । पुण्य-पाप जगमांहि में पेरत ये दोई इन दोनों से भिन्न आत्म परणति है सोई । नाशंकरन के हेत सो ले तन्दुल मन हरषाय । पूजौं । । ४ ।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभुजिनचरणाग्रे कामवाणविध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा। इह संसार मंझार बहुत यह भूख सतायौ नरक गयौ सु अहार कहूँ सुपने नहिं पायौ । निरबारन के हेत सो चरु लेकर धरिॐ नाय । पूजौं । । ५ । । ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभुजिनचरणाग्रे क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा। निज अन्तर उर मोहि लगी अज्ञान अन्धेरी । प्रगटत नांहि सुदृष्टि इष्ट उर अन्तर केरी । विध्वंसन के हेत सो कर दीपक ले शिरनाय । पूजौं ० । । ६ । । ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभुजिनचरणाग्रे मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा । कानन कर्म मंझार बसत बहुकाल गमायौ परौ निज पंथ भ्रमत कहुँ अन्त न पायौ भूल ल्यायौ धूप विचारकै तसु दहत हेत सु दहाय । पूजौं० ।। ७ ।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभुजिनचरणाग्रे अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा । अन्तराय आठौ सुकर्म्मविध पंच विगारै आवत वस्तु सु हाथ जहां अन्तर कर डारै । जासु विहंडन हेत ले फल उत्तम गाय बजाय । पूजौं । । ८ । । ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभुजिनचरणाग्रे मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । २७१ आठ करम दुख देत देत तिन आठ निशानी जल फल आदि सु अन्त महारुचि सौं धरि आनी । देवीदास अरजी करै मोहि लीजे पंथ लगाय । पूजौ ० । । ९ । । ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभुजिनचरणाये अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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