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________________ चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड २६७ आश्विन वदि तेरस सुखदैनी, नखत बखत चित्रा सब जैनी। आयुष तीस लाख पूरव की, कुँवरावर हैं सासम सब की।।१५।। राज पूर्व इकईस सु साढ़े. कातित वदि तेरस तप बाढ़े। एक लाख पूरब निर इच्छा, भूप सहस संजुक्त सु दिक्षा ।।१६।। प्रियंगुवृक्ष हेटि प्रभु आके, निज कर केस-लुंच जह जाके। पहुँचे वर्द्धमान सु नगरी, सोमदत्त नृप गृह विधि सगरी।।१७।। लीनों पय छदमस्त छमासा, सुदि बैसाख दसैं दिन भासा। ज्ञानहौन अपराहिन वेरा, मैटि सबै अज्ञान अंधेरा ।।१८।। समोशरन सुख कारन जी को, साढ़े-नव जोजन अति नीको। चमर बज्र आदिक सु प्रकारा, गणधर कहे एक-सौ-ग्यारा।।१९।। तीन-लाख प्रतिगणधर जीजे, अरु पुनि तीस-सहस गनि लीजे। वीस-हजार-लाखचत्तारी गुण गंभीर अर्जिका नारी।।२०।। तीन-लाख श्रावग व्रत पालैं, पाचं-लाख श्रावगनी आलैं। अवधिवन्त दश-सहस बताये, द्वादश-सहस केवली गाये।।२१।। दशहजारत्रयशत अधिकारे, समनसरस मनपर्यय वारे। छै-सै-नवसहस्त्र सब वादी, मातंगजक्ष जहाँ सु नादी।।२२।। अप्रति चक्रेश्वरी जच्छी देवी, श्री जिन भक्तिवन्त भवग्रेवी। समवसरन महिमा सु घनेरी, लहत न अन्त मन्दमति मेरी।।२३।। सोरठा कर्म सर्व विध्वंस, फागुन वदि चउथौ दिना।। वर इक्ष्वाकु सुवंश, निर्मल करि पहुँचे मुकति।।२४ ॐ ह्रीं श्रीमद्मप्रभुजिनचरणाग्रे जयमालार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। गीतिका विधिपूर्व जो जिनबिम्ब पूजत द्रव्य अरु पुन भावसों। अति पुण्य की प्रापत सु तिहिकौं होहि दीरघ आयुसों। जाके सुफल कर पुत्र धन-धान्यादि देह निरोगता। चक्रेश खग-धरणेन्द्र इन्द्र सु होहि निज सुख भोगता।।२५।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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