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चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा - साहित्य-खण्ड
दिपत दीपक रत्न जड़ाव के तिमिर हीन दशा दरसाव के । त्रिविध जोग सु उज्ज्वल हूजिये चतुर्वीश जिनेश्वर पूजिये । । ७ । । ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतिजिनरचरणाग्रेषु मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। वर सुवास समूह सुवस्तु में करहु होम सु लै निज हस्त में । त्रिविध जोग सु उज्ज्वल हूजिये चतुर्वीश जिनेश्वर पूजिये । । ८ । । ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतिजिनरचरणाग्रेषु अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । जल सु चन्दन आदिक जो कही दरव लेकर अर्घ रचौं सही । त्रिविध जोग सु उज्ज्वल हूजिये चतुवश जिनेश्वर पूजिये । । ९ । । ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतिजिनचरणाग्रेषु अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ।
गीतिका
हम निरख जिन प्रतिविम्ब पूजत त्रिविध गुणकर थापना । तिनके न कारज काज निज कल्याण हेत सु आपना । जैसे किसान करै जु खेती नाँहि परपति कारनै । अपनो सु निज परिवार पालन कौ सु कारज सारनै । । १० ।। ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतिजिऩरचरणाग्रेषु पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । (जाप्य १०८ बार - श्रीवृषभादिवीरान्तेभ्यो नमः)
जयमाल
दोहा तिनकी भक्ति बिना गये भ्रमत अनन्ते काल ।
तिन जिनवर चौबीस की वरणौं गुण जयमाल । । ११।।
चौपाई
जय जय आदि जिनेश्वरदेवा जय जय अजित सुखी स्वयमेवा
जय जय संभव जिन सु विधाता जय जय अभिनन्दन गुन भ्राता ।। १२ ।।
२४७
जय जय सुमति कुबुद्धि निवारण जय जय पद्म प्रभु भवतारण जय जय जिन सु सुपारसस्वामी जय जय चन्द्रप्रभु शिवगामी ।। १३ ।। जय जय पुष्पदन्त गुण पूरे जय जय जिन शीतल दुख चूरे
. जय जय श्रेयांस सुख दायक जय जय वासुपूज्य जगनायक ।। १४ ।। जय जय विमल विमल गुण दरसी जय जय जिन अनन्त सु समरसी जय जय धर्म धर्म - धनधारी जय जय शान्ति शान्ति - व्रतभारी । । १५ ।।
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