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संगीत-बद्ध-साहित्य-खण्ड
२१९ (१९) राग गौरी अंतरदिष्टि जगैगौ जव तेरी अंतरदिष्टि जगैगौ। होइ सरस दिडता दिनहूं दिन सव भ्रम भीत भगैगौ।।१।। जब तेरी. काल लबधि आवत सु निकट जब शत संगति उसगैगौ। अलपकाल महिनिरविकलप होइ गुर उपदेस लगेगौ।।२।। जब तेरी. विषय-कषाइ सहज मुरझ्या तन थिर होइ मनु न डगैगो। होत सुथिर मरि व्याकुलता मति की गहि मोह अनल दगैगो।।३।। जब तेरी. वडत विवेख सुरुख घट अंतर पर परनति न पगैगौ। शमरथ हो करिहै निज कारज अनभव रंग रगैगो।।४।। जब तेरी. दरसन ज्ञान चरन सिवमारग जिहि रस रीति खगैगो। देवियदास कहत तव लगिहै जिय तूं सुद्ध ठगैगौ।।५।। जब तेरी.
(२०) राग गौरी आतम रस अति मीठौ साधौ भाई आतम रस अति मीठौ।। स्यादवाद रसना विनु जाकौ मिलत न स्वाद गरीठौ।। १।। टेक. पीवत होत सरस सुख सो पुनि बहुरि न उलटि पुलीठौ। अचिरज रूप अनूप अपूरव जा सम और न ईठौ।२।। टेक. तिन्हि उतकिष्ट-इष्ट रस चाष्यौ मिथ्यामत दै पीठौ। तिनिकौं इंद्र-नरेंद्र आदि सुख सो सव लगत नसीठौ।।३।। टेक. आनंद कंद सुछंद होइ करि मुगतनहार पठीठौ। परम सुधा सु समै इक परसत जनम जरा दिन चीठौ। देवियदास निरक्षक स्वारथ अंतर के द्रग दीठौ।।५।। टेक.
(२१) राग कानरौ बिनु निज नैन परे जिय धोखें। भूलि रहे प्रतपक्षपात गहि करि अपनी-अपनी मत पोखें।।१।। टेक. एकै सेत वरन पट पहिरत एकै मलिन वसन तन औखें। एकै सहित अरून अंमर मुख भाखत जैन जती हम चौखें।।२।। बिनु. केइक ग्रंथ रचत जग वंचत नूतन रीति-प्रीति करि घोखें। राखत सीस जटा केई लुंचत केइक मूड़ मुड़ा संतोखें।।३।। बिनु. केइक नगन सहित अभ्रन करिके इक अंग भभूदि समोखें। केइक धूमपान करि पाचत झूलत खात अधोमुख झोखें।।४।। बिनु.
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