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देवीदास-विलास देवधर्म गुर ग्रंथ न जान्यौ गहि कुकरम की टेउ। भजत कुदेव बढ्यौ दुख दूनौ ज्यों पावक मैं घेउ।।२।। तुम. बार अनंत धरे तन थावर तह बहु भांति रझेड फिरि उतर्यो विकलत्रक मांहीं खात फिरयौ बहु ठेउ।।३।। तुम. नर तिरजंच नरक सुरगति सौं टूट्यौ नांही सनेउ। सुख सपनैं न मिल्यौ कहुं सांच्यौ या जग मैं स्वयमेउ।।४।।तुम. निहचै करि भरि रूप न देख्यौ सुनि समझ्यो सुनभेउ। देवियदास कहत सुख दीजे प्रभु चरनन की सेउ।।५।।तुम.
(१७) दादरौ तुरत भजौ जिनराज जौ सुख चाहत जग मैं।। तुरत भजो।। जा सम और नहीं पुनि दूजौ देव गरीव नवाज।।१।। जौ सुखु. सो सरवज्ञ निवाहन हारे सरनागति की लाज। इक-इक नाम महाहित कारन सरव सुधारन काज।।२।। जौ सुखु. एक समै तिन्हि की प्रति देखत जात सवै भ्रम भाज। जे जग-धीर गंभीर जलधि के तारन-तरन जिहाज।।३।। जौ सुखु. मन वच काइ एक चित होकरि कुगुरु कुदेवहि त्याज। जव घटि है यो असुभ करमनि को दैनों मूरि वियाज।।४।। जौ सुखु. जे भगवंत तजै नर तिन्हि कौं मुख भरि मिलत न नाज। देवियदास कहत सु हमारे वसत सदा दिल माज।।५।। जौ सुखु.
(१८)दादरौ दिपति महाअति जोर जिनवर चरन कमल दुति।।दिपति महा।। देखत रूप सुधी जन जाकौ लेत सवै चित चोर।।१।। जिनवर. कैंधो तप गजराज दई सिरभरि सैंदुर की कोर।। मोह निसाकरि दूरिभयो कैंधो निरमल ज्ञान सुभोर।।२।। जिनवर. कै वसु भांति करम वन दह्यौ सो पावक झकझोर। कै निज सुक्ख तरोवर के दल उमगि उठै सिर फोर।।३।। जिनवर. कै निज-निज गुनरासि रतन की जाकौ विमल अहोर। कै सिव कामिनि को मुख राख्यौ केसरि के रंग बोर।।४।। जिनवर. कै निज ध्यान भइ चपला थिर प्रभु धुनि गरजत घोर। देवियदास निरनि अति हरषित प्रभ घन मन मोर।।५।। जिनवर.
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