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________________ देवीदास-विलास केइक पंच अगिनि पिनि बैठत कष्ट सहत तप करि तन सोखें। देवियदास सकल जीवनि कौं स्वपर विवेष बिना अति जोई।।५।। बिनु. (२२) राग सारंग कीजे कौंनु हवाल अवर हम कीजे कौंन हवाल। मन वच काइ जपत अड़ि बैठे श्रीजिनधर गुनमाल।।१।। अवर हम. अवर हनहि संस्थानन सार संघनन पुनि मुनिव्रत सुनहाल। छाइक ज्ञान न छाइक समकित दिनदिन प्रति मति चाल।।२।। अवर हम, चंचलता परिनामनि की अति गुर उपदेसु न ठाल। सिवपुर पंथ थक्यौ तह सो पुनि परगट पंचम काल।।३।। अवर हम. वृद्धपर्ने त्रसना अधर मरत तरुन सहित रुचिवाल। सब विपरीति प्रगट तह देखौ षटु मत अति विकराल।।४।। अवर हम. कर परितीति धरी सरधा उर देव धरम गुर चाल। देवियदास प्रसाद मिटै तसु क्रम-क्रम सौं जग जाल।।५।। अवर हम. (२३) राग सोरठ समकत विना न तयॊ जिया समकित बिना न तर्यो। बहुकोटि जतन कर्यो जिया समकित बिना न तर्यो।। १ ।।टेक. जाइ वन मनु लाइ तन करि अचल ध्यान धर्यो। बीस दोइ परिसहा सहि तपत देह जर्यो।।२।। जिया समकित. वोध लाभ भयो न कवहू मौन धरि सपर्यो। लाख क्रोर उपास करि नर कष्ट सहत मर्यो।।३।। जिया समकित. भांति वहु विधि सास्त्र जान्यौं अरथ करत खर्यो। रहित निज आराधना चिरकाल भ्रमत फिर्यो।।४।। जिया समकित. सार अमल अनूप अनुवय अतुल रहस भर्यो। द्वार देवी मुकति को समकित सु नर विसर्यो।। ५ ।। जिया समकित. (२४) राग सोरठ मानु-मानु कही जिया तूं मानु-मानु कही तजि विषय राग सही। कठिनि यह नर देह फिरि श्रावग न कुल मिलही। बहुरि मन पछितावहू है काल वसि परही।।१।। टेक. छोडि कुमति कुभाव परनति कटिलता सब ही। पांच इंद्रिनि वस विर्षे रति मानि मति रचही।। २ ।। टेक. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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