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संगीत-बद्ध-साहित्य-खण्ड इन्हि हमकौं बिनु कारन दीनौं दुख अपनै मन भायो। श्री भगवंत अंत नहिं जाकौ छिन-छिन होत सवायो।।४।। सरन. ज्यौं इनि वैरिनि कौं तुम जीते सो मुझ क्यों न बतायो। सो समुझाइ कहौ अब जौं निज चाहत पंथ चलायो।।५।। सरन.
(९) राग ईमन सुनौं मेरी बातें अहो भवि प्रानी।।सुनों मेरी बातें।। सकति सम्हार सो होहु निराले तन मन विकलप ताते।।१।। अहो. यो तन जड पर रूप अचेतन चिनमूरति चतुरातें। लक्षन भेद उभै पद न्यारे भेद ज्ञान सरधातें।।२।। अहो. तुम अपनी रस रीति बिसारी मोह महामद मा । पुदगल की परतीति बढ़ाकरि हिलत मिलत बिनु नाते।।३।। अहो. राग दोष परिनामनि के रुख विरचे ज्ञान-कला तैं। काल अनादि गए भव भीतर विमुख रह्यौ सु सखा ।।४।। अहो. सदगुरु सबद-अबद करु भाई आतमध्यान लगातें। देवियदास सहज जब छूटौ वसुविधि कर्म-फदात।।५।। अहो.
(१०) राग धनासिरी आतम तत्व विचारौ सुधी तुम आतम तत्व विचारौ। वीतराग परिनामनि कौं करि विकलपता सब डारौ।।१।। सुधी. दरसन ज्ञान चरनमय चातुर सो निह● निरधारौ। निज अनुभूति समान चिदानंद हीन अधिक न निहारौ।।२।। सुधी. सुर दुरगंध हरित पियरी दुति सेत अरुन पुनि कारौ। कोमल कठिन चिकन सब पुदगल दरब पसारौ।।३।। सुधी. सीत उष्ण हल्कौ तन भारी कटु कोमल मधुरारौ।। तिकत कसाइल गुन सु अचेतन सो नहि रूपु तुम्हारौ।।४।। सुधी. आपु निकट घट मांहि विलोकहु सो सब देखन हारौ। देवियदास होइ इहि विधि सौं जड चेतन निरवारौ।।५।।सुधी. .
(११) राग धनासिरी अपनहु पद न सम्हारौ चेतनि अपनहु पद न सम्हारौ। घर-घर डोलत करत फिरे तुम बिनु स्वारथ मुख कारौ।। १।। चेतनि.
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