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देवीदास-विलास कसत सरीर धीर सहि संकट वसत विकठ ठवन के। देखनहार अनिष्ट इष्ट सम कांच-खंड सुवरन के।।२।। निकट. दीनदयाल सील सुख सागर आगर कुगति सदन के। कोमलभाव उछाह सुरस जुत उपदेसक भविजन के।।३।। निकट. परम प्रधान महान जौहरी निरखी अनभौं रतन के। सुद्धपयोग भोग भर मंडन खंडमहार विघन के।।४।। निकट, बलवीरज गुनवंत सुखाकर धर्म धुरंधर धन के।। अतिउदार जुत सार महाव्रत सुरझावन उरझन के।।५।। निकट. सेवक सहज लहत तसु छिन मैं सुक्ख सरस सुरगन के। धन्य-धन्य परताप मिलैं जब मुनि इहि विधि परपन के।।६।। निकट. दुखहरता करतार महामुनि तत्व समूह कथन के। देवियदास अटल सरधानी होत भए सु वचन के।।७।। निकट.
(७) राग सारंग जे नर कामकलंक चकित चित जे नर काम कलंक।। तिन्हि कौं असुचि मलिनि उर अंतर ज्यौं जल गरभित पंक।।१।। चकित. निज परनारि विचार न जानत वरतत होइ निसंक। जे अविवेख प्रकार बजावत अति अवजस की डंक।।२।। चकित. बहिर वदन परिनाम अनारज मन वच तन करि बंक। दुख दालिद्र लहत नरगति महि भीख भखति होइ रंक।।३।। चकित. त्रास अनेक सहत पसुगति धरि बाल तरुनपन झंक। नरक कलेस लहत त्रसनादिक असन नहीं इक टंक।।४।। चकित. भवसागर परि जे न सरदहत सुनि गुरवचन धर्मक। देवियदास विषै रस परनति भ्रष्ट भए निज अंक।।५।। चकित.
(८) राग ईमन सरन जिन तेरे सुजस सुनि आयो। तुम हौं तीनि लोक के नाइक सुरझावन उरझायो।।१।। सरन. आठ करम वैरी तिनि मेरौ निज मारग विसरायो। परम धरम धन लूटि हमारौ मोहि कुपंथ लगायो।।२।। सरन. परवस मैं परिदेह कोठरी काल अनादि गमायो। को कवि वरनि सबै सुवेदना सुख सपने सु न पायो।।३।। सरन.
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