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संगीत-बद्ध-साहित्य-खण्ड दुरमति नसति बसति सुरमति उर लहत सुगति अति नीच। समिता सलिल भरत दिल सागर जल दालिद्र उलीच।।२।। टेक भगत कलेस जगत जसु प्रगटत लगत न कलमल कीच। बडत सुकृत तरवर सु सबल फल देवियदास नगीच।।३।। टेक
(४) राग सोरठ सेव सकल सुखदाई रे जाकी सेव सकल सुखदाई रे। सेवक घट दिन हूं दिन बाडत सुकृत' बेलि सवाई रे।। १।। जाकी. भूख तृषा तह राग दोष मल जन्म-जरा न बसाई रे।। मोह मरन तन रोग न जाकै नहिं निद्रा न कषाई रे।।२।। जाकी. निर्मल देव विमल कंचन सम मदन विवर्जित काई रे। विगत अचिर्ज न स्वेद पसीजत कै सक कौन बड़ाई रे।।३।। जाकी. सोग अरति मर्दन मद मच्छर चिंता चुत चपलाई रे। रहित अठारह दोस निरंतर तीनि लोक पसराई रे।।४।। जाकी. काल आदि भगति बिनु जाकी निजपुर राह न पाई रे। देवियदास नमत ता प्रभ कौं बार बार सिरनाई रे।।५।। जाकी.
(५) राग ईमन सगुरु मेरे मन के निकट कब आवै। जीव अजीव दसा निरवारन पंथ-कुपंथ बतावै।।१।। सुगुरु. वेद विकार मिथ्यात महाअरि राग दोष स नसावें। हास-अरति-रति-सोग-विथा हरि निरभै ध्यान दिढ़ावै।।२।। सुगुरु. रहित गिला न मान माया छल लोभ लहरि सु विलावै। क्रोध कलंक पंक सु प्रच्छालन सहज सुथिर पद पावै।।३।। सुगुरु. यह आभ्यंतर संग चतुर्दस बाहिरयंग गसावें। दरसन-ग्यान-चरन-तप-संजिम सहित मुकति मुख धावें।।४।। सुगुरु. तारन-तरन सरन-संतनि के ते निरगंथ कहावै। देवियदास करत हम तिन्हि कौं बार-बार सिर नावै।।५।। सुगुरु.
(६) राग ईमन निकट कब आवै सुगुरु मेरे मन के। जनम-जनम कृत पाप विनासत होत न बिन दरसन के।।१।। निकट. १. मूल प्रति “सुकृत कृत बेलि'।
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