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देवीदास-विलास
ख. पद-पंगति
(१) राग विरावर तूं जियरे निज तत्व कौ न भयो सरधानी। काल बहुत भटकत गए तोहि सौंझ विरानी।।१।। तूं जियरे. मिथ्यामदि करिक मत्यौ गुरू सीख न मानी। तौथें और न दूसरौ जग मांहि अल्हानी।।२।। तूं जियरे. जब-जब जिहि गति मैं गयो अपनी करिजानी। उर अंतर लोचन बिना दरसी न निसानी।। ३।। तूं जियरे. पर परनति रचि ज्यौं तज्यौ पावक जुत पानी। धाइ-धाई विषयनि लग्यौ त्रसना न बुझानी।।४।। तूं जियरे. दर्व लिंग धरित पुकर्यो करुना चित आनि। नवग्रीवक पद पाइ कैं गति-गति फिरि ठानी ।।५।। तूं जियरे. कुगुरु-कुदेव-कुधर्म की रस रीति सुहानी। तिहि कारन तौ सौं कह्यौ सठ गैर ठिकानी।।६।। तूं जियरे. देव धर्म गुरु ग्रंथ की दिढ़ता सुख दानी। देवियदास प्रतीति सौं तिरहै जिनवानी।।७।। तूं जियरे.
(२) राग विराउर देह देवरे मैं लखो निरमल निज देवा। जजन-भजन बिहबार सौं कह मारत ठेवा।। १।। देह देवरे. आप स्वरूपी आप मैं अपनौं रस लेवा। राग दोष भ्रम भाव सौं जिहि सौं नल थेवा।।२।। देह देवरे. जासु विषै परगट सबै ग्रंथनि कौं रेवा। देखनहार सबै वही सब कौं गुन खेवा।।३।। देह देवरे. क्यौं तम प्रभ कारन तजौ वनिता घर जेवा। भूलि भरम कह करत हौं गढि मूरति सेवा।।४।। देह देवरे. वह सेवक साहिब वही नहिं और कनेवा। देवियदास सुदिष्टि सौं दरसे स्वयमेवा।।५।। देह देवरे.
(३) राग सारंग जिन सुमिरन उर वीच बसत जब जिन सुमिरन उरबीच। सुख सरवंग अभंग लहत तन जनम धरत मरि मीच।। १।। टेक
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