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संगीत-बद्ध-साहित्य-खण्ड
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कर्म चारि घातिया अनादि के कुजातिया। अपार दुख दैनहार कालिमा सु धोई।।२।। टेक अनंतग्यान केवली जरी समान जे बली। लगै अघातिया सु तौ महा-असक्ति होई।।३।। टेक विषैसु सर्व सिष्टि मैं धरे सु एक दिष्टि मैं। प्रतक्ष सर्वभाव लोक वा अलोक दोइ।।४।। टेक बनाइ नाम की सुमाल बुद्धि सौं महाविसाल देवीदास कंठ सो नवाई माल पोइ।।५।। टेक
(२३) राग ईमन चलें जात पायो सरस ग्यान हीरा दुख दालिद्र दुरित सुक्रत क्रत दूरि भई पर पीरा।।१।। टेक छित वैराज्ञ विवेष पंथ पर वरसत समरस नीरा। मोह धूलि वहि जात जगमज्ञौ निरमल जोति गहीरा।।२।। टेक अखिल अनादि अनंत अनौपमनिज-निज गुन गंभीरा। अरस अगंध अफरस अनूतन अलख अखेद अचीरा।।३।। टेक अरुन सुपेतन हेत हरित दुति स्याम वरन सुन पीरा। आवत हाथ कांच सभ समझे पर पद आदि सरीरा।।४।। टेक जासु उदोत होत सिव सनमुष छोडि चतुरगति कीरा। देवियदास मिटी तिनही की सहज विषम भव भीरा।।५।। टेक
(२४) राग ईमन कारज क्यों न करै रे तूं प्रानी। ज्यौं नर वीजु ववत तहे तैसौ जैसौ ही सु फरै रे।।१।। टेक तन मन लाइ कुटम के कारन पर की दरब हरै रै। विषयनि के सुख हेत हरषि करि पाप करति न डरै रे।।२।। टेक
(२५) राग जैजैवंती जन जे परनारी सेवै तिन्हि को घर कहै।
सुमति न उर माहि सुभ करतूति नाहि । १. इसके पश्चात् पदांश उपलब्ध नहीं है। २. मूल प्रति में आगे की पंक्तियाँ अनुपलब्ध हैं।
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