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________________ २१० देवीदास-विलास राग दोष मोह नाहीं सहज सुदिष्टि मांही धरम सुकल साध्यौ तिणही सुध्यान है।।२।। टेक पाप अरु पुन्य दोउ कर्म मैं न भेद कोउ वनिज मैं जाकी कहं विडतौंन ज्यान है।।३।। टेक सांचौ सुख मात्रै निज महिमा हिए मैं आलें। देवीदास पद तिनहीं कौं परधान है।।४।। टेक (२०) राग नट मूरति देखि सुखु पायो मैं प्रभ तेरी। एक हजार आठ गति सोभित लछिन सरस सुहायो।।१।। टेक जनम जनम क्रत असुभ करम कौं रिनु सबतुरत चुकायो। परमानंद भयो परिपूरित ज्ञान घटा घट छायो।।२।। टेक अति गंभीर गुनानवाद तुम मुख करि जात न गायो। जाके सुनत सरदहत प्रानी कर्म कँदा सुरझायो।।३।। टेक विकलपता सुगई अब मेरी निज गुन रतन भंजायो। जात हतौं कौंडी के बदलै जब लगु परखि न आयो।।४।। टेक परि-परिनाम कुग्राम वासु तज आतम-नगर बसायो। देवियदास अद्यौत भाव धरि हाथ जोरि सिरु नायो।।५।। टेक - (२१) राग जैजैवंती मेरै तौ भगति निसदिन जैसे गुर की सुमति सौं करिसाट खोलि घट के कपाट पाई। तिन्हि वाट सो निराट शिवपुर की।।१।। टेक धरम-धरा मैं पाई धरत सुधीर आई। तपन बुझाई दुख दाइ मोह जुर की।।२।। टेक विमू सुभाव सोध प्रगट्यो सहज बोध। कर निरोध निरमलताई उर की।।३।। टेक उपमा सु दीजे काहि धरनै सुसेष ताहि। देवीतास सुख दाहि गति नरसुर की।।४।। टेक (२२) राग भैरो तुम सम जिनदेव और दूसरौ न कोई। काम क्रोध मोह राग दोष व्याधि खोई।।१।। टेक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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