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संगीत-बद्ध-साहित्य-खण्ड
(१७) राग विरावर ये लछिन मुनिराज के लखिकै परगाहो। पंचमकाल विषे अवै दखिनि दिसि पाहो।।१।। ये लछिन. कालु पाइ कबहू जहाँ भोजन कौं आवै। पंच घरा फेरि लेत हौ निरदूषन पावै।।२।। ये लछिन. ठा. लघु इक बार मैं भुगतै थिर नाँही। विष अंम्रत सम एक सौ तिन्हि के व्रत मांही।।३।। ये लछिन. अंतर वाहिज को नहीं परिगह विधि दोऊ। तिन्हि के गुन परखें नहीं समकित बिनु कोऊ।।४।। ये लछिन. निरमल पर-परनति बिना आतमरस रंगी। ऊजरपुर कानन बसैं मुद्रा धरि नंगी।।५।। ये लछिन. अग्रवार कौं कोटि मोहैं साइक लीजै। जा समान परिग्रह धनी मुनिवर न कहीजै।।६।। ये लछिन. मुनिवर मानि सु देत जे भोजन सठ काहौ। तिन्हि कौं दुरलभ ज्ञान कौं देवीदास सुलाहौ।।७।। ये लछिन.
(१८) राग विरावर मन वच तन करि साधु के हम ही गुन गावें। साधुनि तजि हमरे मनै कोई और न भावें।।१।। मन वच. पंच महाव्रत कौं धरै पचइंद्री दंडें। पंच समिति पालैं छहआवासक मंडै।।२।। मन वच. ठा. लघु इक बार मैं भोजन रुचि हीनैं। भारौ देत सरीर कौं बिनु वसन उदीनैं।।३।। मन वच. केस लौंच सपरें नहीं दंतनि न प्रछालैं। भूमि सैन गुन मूलये अट्ठाइस पालैं।।४।। मन वच. सम्यक दरसन आदि दै तीनौं गुन भारी। देवियदास सुचरन कौं नित धोक हमारी।।५।। मन वच.
(१९) राग भैरौ समझि मैं जाकी आतमीक ज्ञान है। स्वपर विवेकवंत जगत मैं सोइ संत जाकी सुरमति पैसु और कौन स्यान है।।१।। टेक
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