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________________ २०८ देवीदास-विलास करि सधान भवगति मैं न नचिये।।१।। टेक जाही के लखत मोख हरत सकल दोष परम संतोष। धरि भ्रम मैं न पचिए।।२।। टेक ताही की परख बिनु वाडत करम रिनु कीजै जौ उपाई। कोटि काल सौ न बचिये।।३।। टेक या मै न कठिन कोई सहज प्रगट होई। असो देव तजि देवी और सौं न लचिये।।४।। टेक __ (१५) राग भैरों नाभिनंदन चरन सेवह नाभिनंदन चरन। तीनि लोक मंझार सांचे देव तारन तरन।।१।। नाभिनंदन. धनिक सैतन पांच सोभित विमल कंचन वरन। कामदेव सु कोटि लाजत कोटि रवि छवि हरन।।२।। नाभिनंदन. काम क्रोध सुलोभ भागे आपु तिन्हि के डरन। सहज दोष टरे अठारह आदि जनमनमरन।।३।। नाभिनंदन. भक्तिवंत सु पुरिष तिन्हि के संत अंतहकरन। ऊँच गति कुल गोत उत्तिम लहत उत्तिम वरन ।।४।।नाभिनंदन. मानि करि भव भय सुभविजन आनिले तसु सरन। देत देवियदास पानी मुक्ति तरवर जरन।।५।। नाभिनंदन. (१६) राग रामकली भगति महि जितु देत प्रभ तेरी भगति महि चितु देत। मूढता सुविसारि छिन महि होत संत सुचेत।।१।। टेक जगत माँहि सु भव्य प्रानी तीनि जोग समेत। पढत मुख कर सीस नावत मनु सुफल करि लेत।।२।।टेक तरन-तारन जानि जिनवर आपनौ हित हेत। पुन्य अति उपजत सुदरसत असुभ करमनि रेत।।३।। टेक मोह रिपु को होत सनमुख रोपि करि रन खेत। बांधि मुख तसु करत कारौ धरत पंथ सुपेत।।४।। टेक लखत तुम दुति बंधत माथें मुकतिपुर कौं नेतु। देवियदास सु. होत प्रानी परम आनंद केत।।५।। टेक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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