SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुराणेतिहास-साहित्य-खण्ड १९७ अति भदभदा जह पियो पानी सकल अनछान्यौ तजौ। सब जीव आपु समान के लखि परम निरमल पद भजौ।। तुम आउ पुनि इक मास बाकी सुपन सोवत सी रही। यह सीख धरि उर मांहि तजि करि सकल भ्रम कीजौ कही।।२१।। श्रावक व्रतु जग मांहि सुख कौं करै। श्रावग व्रत सु प्रसाद जीव भवोदधि तरै।। श्रावग व्रत तुम जोग स दिढ करि लीजिये। इहि विधि भव दुख वासु जुलांजुलि दीजिये।। दीजिये भव-भव दुख जुलांजुलि और व्रतु तुम्ह कौं नही। यह वचन सुनि करि सिंघ-पुनि बैठौ रहयौ वहीं को वहीं।। संन्यास धरि इक मास कौ दिन-दिन दया प्रगटै हिौँ। सौ सकल जीवनि पर क्रपा जुत सुधा समिता रस पियै।।२२।। तन पर चढि बहुजीव वमीठे लगि रहे। लेत करौटा नाँहि मही संकट सहे।। इह विधि संजिम पालि महातनु सोढिकै। पुनि पहुँचे सुरलोक सिंघ तन छोडिकैं।। छोडिकैं तनु जब सिंघ को सुरलोक सुर पदवी लही। तब अवधि आपु विचारि करि कहि कौन पुन्य उदै यही।। मुनिवर वचन उर धरि त्रविध करि दिढ परम अनुव्रत गयौ। पूरब सु पुन्य उदोत करियहु आनि पुनि सुर पद लयौ।।२३।। फिरि मुनिवर के पास आनि अस्तुति करी। प्रभु तुम्हरौ उपदेशु पाइ सुरगति धरी।। प्रभु तुम दीनदयाल अनाथनि के धनी। तुम दरसन जग मांहि विपति टारन घनी।। टारन विपति भविजंत तिन्हिके तरन तारन हार हो। महिमा अनंत सु को कहै तुम्ह तीनि लोक सिंगार हौ।। इहि भांति थुति करिकै सु फिनि सुर आपु लोक विौं गए। तहं सुख विलास-विनोद अति-अति भाँति भाँतिन के भए।।२४।। अति उत्तिम पद पाइ सुखी सब संत मैं। आनि भए पुनि वर्धमान जिन अंत मैं।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy