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देवीदास-विलास
तजि तन बहुरि नृप होइ साठि सुलाख भव गनती गर्ने। तह पात्र दान दियो सुफल करि भोग भूमि विर्षे जनै।।१७।। असिय लाख परजाइ धरी सख थोक मैं। जहं तैं मरि उपजे स बहुरि सुरलोक मैं।। असिय लाख पुनि जन्म स्वर्ग गति मैं दुखी। मूरिष जग जग मांहि कहैं तिनि सौं सुखी।। तिन्हि सौं सुखी सु कहै अजानै सुर विषय भुगतत मरे। भव तीस-कोडि लगार इक मंजार तनु मरि-मरि धरे।। मंजार तनु तजि साठि लाख सुबार गर्भ विौं खिरे। सो दुख कौनु कहै जहाँ अति भांति-भाँतिन कै पिरे।।१८।।
और भवांतर बहुत सकै को गाइकैं। अवधि विषै प्रगटै सुकहे समुझाइ कैं।। तब तुम यह परजाइ धरी पुनि सिंघ की। तासु कथा अति नीच वढ़ावन भिंग की।। अति भिंग की करता कथा सब सिंध सौं मुनिवर कही। सो सुनत सिंघ खडौ भयो कर जोरि जुग सिरु नावही।। पुनि कहत सिंघ महामुनीस्वर सौं सुदेरन आनि। हम कौं सु अब ततकाल दीजै सो सिखापनु जानियें।।१९।। तुम प्रभु तारन तरन सुधारन काज हौ। तुम सरनागत संत गरीबनबाज हौ।। तुम गुरदीनदयाल महाजसु लीजिए। मोह दुखित अति देखि सु बात कहीजिए।। सु कहीजिए उपदेस स्वामी मन वचन तन करि गहौं। तुम वचन की सुप्रतीति करि उरधारि सु निज मारग लहौं।। यह कहत सिंघ उदास अति सनमुख भयो मुनिराज सौं। हम सौं कहौ अवसीख सो हम लहि सबै निजकाज सौं।।२०।। जब मुनिवर उपदेस कहत सुनु भवि जिया। उर अंतर अवधार हर्ष करिक हिया।। सूखौ त्रन तुम चरहु हरित छोड़ो सदा। नीर पियो जह धार गिरै अति भदभदा।।
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