SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९४ देवीदास-विलास सुनहु सिंध तुम बात जीव उत्तिम कहे। भव अंतर सुनि लेउ एक छिन हो खड़े.।। छिन हो खडि यहु वचन सुनि करि सिंध मन वच काइ कैं। कर जोरि जगु पाइनि पस्यौ प्रभु दुख कयौ समुझाइकैं।। मुनि कहत सुनि भविजंत हो अति सावधान प. सुखी। वरनौँ भवांतर भिन्न-भिन्न सुअवधिज्ञान प्रगट मुखी।।१०।। प्रथम रिषभि जिनराज भए उत्तिममती। तिन्हि कैं सुत उपजे सु भरथ षटुखंडपती।। भरथेश्ववर सुत बहुरि कुंवर मारीच जु। तिनि तजि ग्रह दुखदाइ सकल भव सोच जू।। ग्रह सोच तजि दिडधरि महाव्रत पुनि सु तप युत वन बसैं। मन-मदन वान कषाय-विषय विकार जीति सु तन कसैं।। जह आदिनाथ जिनेस पहुँचौ समवसरन सु आइकैं। तह समवसरन विषै गए भरथेस अति सुख पाइकैं।।११।। भरथेस्वर गनधर तिन्हि सौं पूछत यहौ। हम कुल पुनि को होइ सु तीर्थंकर कहो।। गनधर देव कही सुभरथ पुनि बूझियो। तीर्थंकर मारीच होहि सु समूझियो।। सु समूझि पुनि मारीच सुनि करि महाग( हिमैं धस्यौ। अतिसार संजिम सरसु मुनिव्रत छिनक महि सव परिहत्यौ।। सव राज काज कियो जथारथ बहुरि मन वच काइ कैं। भाखी सु श्रीजिनराज सबहू है सु औसरु पाइकैं।।१२।। इह विधि संजिम त्याग अहूं चित मैं धरी। पूरन करि पर जाइ निगोद विथा भरी।। सो पुनि इतर निगोद विर्षे दुख देखियो। विषय-भोग फल जानि सुसंत विसेखियो।। सु विसेखियो सब पाप को फल छिनक सुखइ झांक कौं। वह तें सु फिरि निकसत भए मारग विषै तरु आंक कौं।। तह वरष साठि हजार बीती मरत पुनि उपजत जिया। वह थिति सुपूरन होत पुनि अवतार छीप विषै लिया।।१३।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy