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पुराणेतिहास-साहित्य-खण्ड
सुनहु
भरथेस्वर सुगनधरजू
कही।
खाइगौ संसौ तपु करत ये मारीच तीथंकर सुपुनि हूहै सही । ।
सुनि जब कुंवर मारीच जिनवर वचन टेक हियैं रही। मन मांहि गर्छु कियो सुसव संजिम उतारि धरयौ तही । । ६ । ।
कारन कौन सु अव हम दुद्धर तपु करैं । जिनवर भाषित सो अब क्यों न हियै धरै । ।
गनधर देव कही भरथेश्वर सौ यही । तीर्थंकर पदवी सु कहा हौंने रही ।। हौंने रही न सु बात, भाषी यह विचार सुव्रतु तजे । ग्रह भोग फेरि ग्रहौ सकल व्रतु तजत नैकु नहीं लजे । ।
कैं
मन वचन तन करि विषय रस सरवंग सुख करि भोगयो । तप करि सुत्रास सह्यौ अकारथ दिनु सु पुनि निरफल भयौ । । ७ ।। विषय भोग पुनि कौंनु कहै सुबखानि । जे भुगते मारीच कुंवर हितु जानिकै । । क्रतकारित अनुमोदमानि जे अघ करे । जाकौ फल पुनि पाइ निगोद विषै परे । ।
सुपरे निगोद विषै महा अति विषम दुद्धर दुखसहे । सागर सुएक रहे जहाँ सुन जात पुनि मो पर कहे । । तह परम अति सुछम अपावन तन सु साधारन धरे । तह मरन एक समै विषै बहु बार अष्टादस करे । । ८ । । बहुविधि दुख भुगते अति घोर निगोद के । उपराजे क्रत कारित पुनि अनुमोद के । ।
कीनी जह करनी सु बहुत परपंच की । धरि अंतिम परजाइ सिंध तिरजंच की । ।
तिरजंचगति अति दुख कारन सिंह पुनि परनति लटी । वनचर सु अरि न बचै जहाँ चहुँ ओर पसु पंगति घटी । । पुनि परम चारून मुनि तपीस्वर सुद्ध वह वन मैं रहैं । सुख कंद समरसवंतता उपदेस भवि देखत कहैं । । ९ । । मुनिवर देखत सिंघ सु भक्षन कौं गयो । भव्य देखि मुनिराज सु संबोधित भयो । ।
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