________________
पुराणेतिहास-साहित्य-खण्ड दिन-दिन पुनि विपरीत कुभिंग जती व्रती करि थपै कुलिंग। पहिरै वसन भोग विधि चहैं तिन्हि सौं मुगध मुनीश्वर कहैं।।२६।। साडे सात कोडि सरगंथ जैहें नर्क कही जिन पंथ। अरु तिन्हि के परमोदनहार ते पुनि जैहें नर्क मझार।।२७।। सरधावंत रूची नर कहे कहूं-कहूं जो विरले रहे। तिन्हि के उर वरन्यौं समकित छटै काल पुनि महा विछित्त।।२८।। जाकै कहनहार भगवान को कविता करि सकै बखान। अलप बुद्धि करके कवि कही सुद्ध सोध की जै बुध सही।।२९।।
दोहरा अंतर जिन चौबीस को जथा सक्ति मति हीन। ग्रंथसार सिद्धांत लखि भाषा परगट कीन।।३०।। देवी सेवी सर्व जिन खेवी दश विधि धूप।
लेवी सुरपद जाइ कैं जेवी परम अनूप।।३१।। (२) मारीच भवांतराउली
बंदौ पद अरिहंत सिद्ध गुन उर धरौं। आचारज उवझाइ साधु वंदन करौं।। बंदौ श्रतु सिद्धांत संत सुरमति लहौं। भवअंतर मारीच कुंअर भाषा कहैं।। भाषा समुझै भविकजन सुनत अति सुख पावहीं। संसार भोग उदास कारन यहु चरित्र सुगावहीं।।
अति सुगम अरथ सुढार सज्जन परम शब्द सुहावनौ। कवि अल्पमति करि कहत सो पुनि अल्प मन समुझावनौ।।१।। नाभि नृपतिं सुत प्रथम आदिजिनवर लहूँ। तिन्हि के सुत भरथेस खंड षटुपति कहूँ।। भरथेस सुत पुनि मारीच बखानि। तिन्हि तजि ग्रहवस वास महाव्रत ठानि।। ठानियै महाव्रत कष्ट दुद्धर सहत अति दिन दिन धनैं। तेरह प्रकार धरै सुपुनि चारित्र सो कहत न बनें।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org