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देवीदास-विलास अरु पुनि चौवन सागर अंत सिझे वासुपूज भगवंत। बहुरि वितीते सागर तीस विमलनाथ त्रिभुवन गुन धीस।।११।। तिन्हि तैं नव सागर के बीच धोई जिन अनंत जग कीच। पाउ पल्य घटि सागर चार धर्मनाथ उतरे भव पार।।१२।। आधिपल्य घटि सागर तीन सांतिनाथ करि कर्मनि छीन। आधि पल्य को अन्तर परे कुंथुनाथ सिवपुर विस्तरे।।१३।। वर्ष हजार कोडि इक हीन पाउ पल्य महि करौ प्रवीन। एतौ जब अंतर परि गयो अरहनाथ को केवल भयौ।।१४।। सहसकोडि वर्षे पूरियो मल्यनाथ निर्भे पद लियो। चौवन लाख वरष परवान बीतत मुनिसोबत सिवनाथ।।१५।। पुनि षटु लाख वर्ष गत होत नमि जिनेसउर परम उदोत। पाँच लाख वर्षे करि हीन नेमिनाथ अव्वय पद लीन।।१६।। पौने चौराशी सुहजार बीते वर्ष पार्श्व जिन पार। वरष दोइसै अधिक पचास महावीर पहुँचै सिव पास।।१७।। बाकी वरष तीनि वसु मास वासर रहे पंच दस तास। कोडाकोडि कछु घटि ताल पूरन भयो चतुर्थम काल।।१८।। वरषै वियालीस हजार बाकी बची अवर जे आर। तिन्हि के मद्धिकाल दो एव पंचम छ्यौ कयौ जिनदेव।।१९।। जह तैं थके मुक्ति पद सोई होनहार विपरीत सु होई। काल सर्पिनी हुंडाछली बासठि बरस रहे केवली।।२०।। रहयौ एक में वर्ष निदान वर वरिष्ठ मनपर्जयज्ञान। तेरासी वरषै सत एक काल पंचमौ गऔ सु टेक।।२१।। दस पूरब धारी मुनि कहे पुनि एते अंतर महि रहे। धारी पुनि एकादस अंग वसु मुनिराज सुधी सरवंग।।२२।। वर” वरष दोई सै बीस ते वंदौ चिरकाल मुनीस। पुनि निमित्तज्ञानी मुनिचार एक अंग के धारन हार।।२३।। वरष एकुसै दस अरु आठ वर्तमान वतें जिन पाठ। तिन्हि बहुभांति प्रकासे ग्रंथ आगम अध्यातम निज पंथ।।२४।। छैसे तेरासी पुनि वर्श रहे अवर मुनि वरगुन सर्स। जहं तें सरगंथी अवलाध दखिन दिसा रहै पुनि साध।।२५।।
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