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संख्यावाची साहित्य खण्ड जैन दुरित तम अरक जैन मिथ्यात विनासक। जैन हरन दुख नरक जैन सव तत्व प्रकाशक।। जयवंत जैन जग महि भविक जासु बिना कारज न इक। सो जैन बैन बिनु सिवरमिक भाव नहीं उपजै समिक।।४२।।
दोहरा वर्त्तमान वर्ते नहीं सोसु करै बेसर्म। बंध असाता कर्म को करै चहै सुभकर्म।।
इकतीसा जैसे कोइ रोग मांहि असन गरिष्ट करै रोग के विनास को विचार चित्त रहै है। जैसे घृत धारा करि सींचत है पावक मैं पावक सो घृत सौं बुझाइ दैन कहै है।। जैसें कालकूट तासु भक्षन करै है मूढता पै जीवितव्यता बिना विवेख गहैं है। जैसें जगवासी जीव जोग दै आठों जाम करत असाता बंध साताकर्म चहै है।।४३।।
दोहरा भाग्य बिना रे मगध नर संपति चढ़े न हात। जैसें चात्रक मुख विर्षे बूंद परै खिरि जात।।
सवैया इकतीसा जैसे चन्द्रमा को प्रतिबिंब दीसे पानी माहि वाकौं हातु घालिक सु कैसें कोई पाइ है। जैसे कोई जनम कौ बौरा जन बोलै नांहि कहो राग रीति सौं सु कैसे गीत गाइ है।। जैसे चछुहीन नर चलै आप अकलि सौं औरनि कौं कहौ कैसें मारग बताइ है। जैसे मूढ प्रानी जिनवानी मैं विचार देखुउदै तौ आसाता कर्म साता कैसे आइ है।।४४।।
दोहा मूढ मती तिनि कौं नहीं लगै परम उपदेश। सुनौं भव्य दिष्टांत यह कहू प्रगट करि लेस।।
तेईसा ज्यौं मुकताहल माल बना करि कैं कपि चंचल के उर लावौ। भोजन पान चहू रस थान सु ज्यौं खरु के मुख मैं भुगतावौ।। अंधन पास करे जिम नृत्य सु ज्यौं बहिरे जन के ढिग गावौ। ज्यौं जग मांहि कहै मति मान सु मूरिख लोगनि कौ समुझावौ।।४५।।
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