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देवीदास-विलास
तेईसा अंम्रत जौ उपजै अहि के मुख पाहन भूमि सरोज फुलैहै। पच्छिम की दिसि भान उभे जिय घात तजौ सुरलोकनि जैहै। वासर भान लखें अरु आवहु भांतिनि पात करीलनि छैहै। जौ जिनसासन भाषित रीति अभव्यनि कै घट मैं सरदैहै।।३९।।
दोहरा सुनौं सुयहु दिष्टांत अव कहीं दूसरी बार। ज्यौं अभव्य उपदेसु गुरु पाठे पर जलधार।।
तेईसा जौ तुरंगै सिर सींग लगै फिरि कैं सरिता उलटौ जलु बैहै। सिंघिनि दूधु रहै मृतुका घट सींचत ही घृत आग बुझै है।। पाहन पोत तरै जल सागर जा करि केहरि कौं मृगु गैहै। जौ जिनसासन भाषित रीति अभव्यनि के घट मैं सरदैहै।।४०।।
दोहरा जैन नैन बिनु जे करत मूरिख तथा उपाई। जैसे भूलें गैल के चल्यौ अकारथ जाइ।।
छप्पय कमलवंध अंग'लगावत राख रहत नित मौन धारि मुख। संग भार सबनाष करत तप सहत घोर दुख।। धरत भांति बहुभेष बढावत जटा सीस नख। वन मैं रहत अदेख असन त्यागें सुमास पख।। इत्यादि कष्ट सहत सुपुरिष मास अवर बीतें बरख। सो जैन नैन बिनु झूठ दिष रहित जेह निज पर परख।।४१।।
दोहा जैन धर्म संसार मैं परम सुख दातार। वरनौं जासु प्रसाद भवि उतरत भवदधि पार।।
छप्पै इय भव अरु परलोक जैन जगमांहि सहाइक।
जैन कर्म क्रत रोक जैन नाना सुख दाइक।। १. यह पद जोग पच्चीसी में भी उपलब्ध है। जिसकी क्रम संख्या २/११/७ है।
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